Book Title: Sutrakritanga Churni Author(s): Publisher: View full book textPage 9
________________ किमाव्यातम्य - था अण्णो जीवौ अण्णसरीरंकलरमादप्पेवा १सअक्रवातं। -- - --- -- जी विविध पवेदिति- अरामा उसी! आयादीहेलिवा, यदि शरीरादर्थान्तरमात्मा स्यात् तेन तस्य शरीखत् संस्थान वर्ण-गन्ध-रस-स्पा उपलभ्येरन न चोपलभ्यन्त इह यदस्ति बारीरादर्थान्तररूपं दी हंबा हुस्संवा जाव अडसं वा,किण्हे लि जावनुक्रव ति एवं सापच्छीरादन्यो नास्ति। कहं ? सै जहाणा मए केइ पुरिस कोसीओ असिएषमादिभिदृष्टान्त:शारीरदाहे सलिछेदे वा को दोषः पारामिको ऽस्ति अविद्यमान जीवे? अथवा शारीरादूर्द्धमावद्यमानी जैसि तं सुअक्खातं किमाख्यातम् 1 यथा अन्यी जीवोऽन्यच्छ रीरं तम्हा मिच्छा। यरमाच्चैवं मरमात से हंसा हगध० पयध० / उहंब-लल मौदत (मोद च) साधु शौभने / " सार्ष ते जीवा न "भवेतिथि परेलोरा एवं वादियोगी विप्पवेदिति विविध प्रवेदयन्ति विप्रवेदयन्ति [किरिआवा अकिरिआइवा, यद्यात्मा मृतः परलोक गच्छेत् सक्रियः क्रिया कर्मबन्ध इत्यनान्तरमायै च कियावादिनः सैसु सुकर टि-दुक्कड] विवागो भवति / सुकडाण कला जफ जविवागो [दुछडा पावफलविवागा सुकउकारी च साहू, दुक्कडकारी अमाधू। सुकृतकल्याणाच्य साधीः सिद्धिर्भवति, विपर्ययवत् असिद्धिः असिद्धस्सव छडकारिस्सगिरयो, तरस्स अगिरयो सेवामैती एवम्प्रकारा:स्वकर्मजनिता: सुकृताद्याः फलविपाका न भवति |AQवं संसार स्वकविहित अभद्दामा: विरूबरूवेहि कम्मसमारंभेहिं प्राणवधा:अथवा स्वयं परैहि उभयथा च विरूवरूबाइंसहाईणिकामभोगाई समारभलिPage Navigation
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