Book Title: Surdipikadi Prakaran Sangraha Author(s): Purvacharyadi, Mangaldas Lalubhai Publisher: Mangaldas Lalubhai View full book textPage 8
________________ भापाटीका । मित्र ! वाच्छित अर्थको देनेवाले,गुरु मनिराज आचार्य श्रीभ्रातचन्द्र मूरिराज महाराजको सेवन कर ॥टेश। जो कि तु इस संसारको छोडना चाहता है, और जो मुक्तिको जाना चाहता है तो इर्षसे है मित्र ! वांछित अर्थको देनेवाले ॥१॥ तूं बुद्धिके घरमें जो प्रवेशको चाहता है तो मेरे उपदेशमें मन फैला।है पित्र॥२॥ यह भयंकर काल पासमेंही आया हुवा है, रागसे क्या अनित्य मुखको देख रहा है। हे मित्र.॥३॥ जोकि तूं (सांसारिक) कर्मको छोरकर धर्म करने के लिये शास्त्रके मर्मको लेना चाहता है तो मुक्ति के लिये हे मित्र०॥४॥ (श्रीवहत्तपागच्छीय) श्रीपार्थचन्द्रसूरीश्वरजीके वंशके दीपक, मुक्तिरूप राजधानीके मार्गको समीप करनेवाले। मित्र०॥५॥ .तपके प्रप.पसे कामको जीतने वाले, व्याख्यानरूप अमृतरसके पानेवाले हे मित्र वांछित भर्थको देनेवाले गुरु मुनिराज आचार्य श्रीभ्रातृचन्द्रजी मरिराज महाराजको सेवन कर ॥६॥ नित्यानन्दशर्मासे बनाई गई, और 'भाइलालजीसे गाइ गइ, यह आचार्य श्रीभ्रातृचन्द्र सूरीश्वरजीकी पद्पदी मुखरूप कमलपर रहो ॥१॥ ली. आपश्रीजीथी जन्म पामेली. श्री जैन इरिसिंघ सरस्वती सभा भने सेवक मंगलदास.Page Navigation
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