Book Title: Surdipikadi Prakaran Sangraha
Author(s): Purvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
Publisher: Mangaldas Lalubhai
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BIRamayawatsawanRDESRAS/Navenasenasana
योग्य , आवी मान्यताने लीधे आपणी एज फर्ज अदा करवानेमाडे आ अमारो प्रथम प्रयास , ते तरफ सुलद दाखवी आ ग्रंथपकवाननी वानगी चाखवा तत्पर रहे अवश्यर्नु डे.
आपणा पूर्वाचार्यों निष्प्रेही, निरनिमानी, निलोनी, अप्रमत्त, परोपकारी, अममत्ववादी, तत्वगवेषी, हितचिंतक, स्वपरोन्नतिकारक, शास्त्राज्ञानुगामी, निष्पक्षपाति, सत्यवक्ता, प्रमा-| णिक अने नवनीरु हता. जेथी शंकाने स्थान प्रापवानुं कारण नथी के तेमणे टाढा पहोरनां गप्पां जगतजीवोने वंचवा माटे हांक्यां हशे. तेउनां तो संटंकः वचनो अक्षरशः मान्य करवाज योग्य .
पूर्वाचार्योए विषयत्नोगनी लालसात्यजी, सरसनीरस अहार तथा प्राशुक पाणीनो उपयोग करी, वनमां, उपाश्रय, के नयंकर स्थलोमां रही, आपणा उपकार माटे ग्रंथा निर्माण करेला बे. तेए पंथ वधारवा, किंवा शिष्य संततीनो फ़ूमो जमाववा के यशनी आकांक्षा यादि स्वार्थपरायणताने अवलंबी वाक्यजालमां बाल जीवाने फसावा उद्यम आदरेल न इतो. तो पड़ी तेवा
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