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[ ६५ ] में बसा हुआ है । इसको श्रीमाल नगर भी कहते थे । यहाँ के निवासी ब्राह्मण श्रीमाली नाम से अब तक प्रसिद्ध हैं । वि० सं०६९७ के करीब प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वानसांग गुजरात होता हुआ यहाँ आया था। उस समय यह नगर गुजरात की राजधानी था। यहाँ वैदिक धर्म को मानने वालों की संख्या अधिक थी। यह नगर विद्या की भी एक पीठ था। 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' के रचियता ब्रह्मगुप्त ने वि० सं० ६८५ में इसी नगर में उपरोक्त ग्रन्थ की रचना की थी । 'शिशुपाल-वध' महाकाव्य का कर्ता माघ कवि यहीं का रहने वाला था। यहां प्रति प्राचीन जय स्वामी नामक सूर्य का मन्दिर है, जिसका जिर्णोद्धार वि० सं० १११७ में परमार वंशीय राजा कृष्णराज के समय में हुआ था। विक्रम की ११ वीं शताब्दी के आस-पास बने जैन मन्दिर भी देखने योग्य हैं।
मंडोर यह जोधपुर नगर से ५ मील उत्तर में है। यहां का किला पहाड़ी पर है। इसका प्राचीन नाम मांडवपुर मिलता है। कहते हैं कि जहाँ पंचकुण्ड स्थान है, वहाँ मांडव्य ऋषि का आश्रम था। पंचकुण्ड के पास ही राजकीय श्मशान हैं जहां प्राचीन राजाओं और रानियों के स्मारक बने हुए हैं। मंडोर में भी प्राचीन राजाओं के स्मारक बने हुए हैं। जिनमें महाराजा अजीतसिंहजी का देवल विशाल और दर्शनीय है । यहाँ से थोड़ी दूर महाराजा अभयसिंहजी के समय का बना तेतीस करोड़ देवी-देवताओं का देवालय है, जो एक पत्थर की चट्टान काट कर उसके नीचे बनाया गया है । यहाँ १६ मूर्तियाँ हैं जिनमें ७ देवताओं की और ६ बड़े वीर पुरुषों की हैं। इनके पास ही काळा-गोरा भैरू व गणेशजी की बड़ी प्रतिमायें हैं। मंडोर के भग्नावशेषों में एक जैन मन्दिर भी है जो दशवीं शती का प्रतीत होता है। मंडोर का बगीचा बड़ा सुन्दर है । यह पहले नागवंशी क्षत्रियों के अधीन रहा, इसी से इसके पास नागकुण्ड और नागाद्रि नदी है। यहाँ प्रतिवर्ष भादों कृष्णा ५ को नागपंचमी का मेला लगता है। बाद में यह प्रतिहारों (ईदों) और उनसे राठौड़ों को दहेज में मिला। तब से यहाँ राठोड़ों का अधिकार हुआ।
मांडलगढ मेवाड़ की राजधानी उदयपुर से १०० मील उत्तर पूर्व में मांडलगढ़ का किला है। इसको किसने बनवाया था यह अनिश्चित है । इसकी आकृति मंडल के समान होने से ही यह मांडलगढ़ कहलाया।
यह गढ़ पहले अजमेर के चौहानों के राज्य में था, किन्तु बाद में पृथ्वीराज के भाई हरिराज से कुतुबुद्दीन एबक ने छीन लिया । पुनः इसे हाडौती के चौहानों ने अपने अधिकार में कर लिया। हाड़ों से यह किला मेवाड़ के महाराणा खेता के अधिकार में आया । यह गढ़ १८५० फुट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है। इसके चारों ओर प्राधा मील लम्बाई का कोट बना हुआ है । गढ़ में दो जलाशय भी हैं जो दुष्काल में सूख जाते थे, इस कारण इन जलाशयों में दो कुए खुदवा दिये, जिनमें जल कभी नहीं टूटता। यहाँ ऋषभदेव का जैन मन्दिर और ऊँडेश्वर और जलेश्वर के शिवालय दर्शनीय हैं।
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