Book Title: Sthanang Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 454
________________ परिशिष्ट श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ सहर्ण्य, ऋषभ, गान्धार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक।। कई विद्वान् सहर्ण्य को षड्ज के पर्याय स्वरूप तथा कैशिक को पंचम स्थान पर मानते हैं।2 ११. स्वर स्थान (सू. ४०) स्वर के उपकारी-विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है। षड्जस्वर का स्थान जिह्वाग्र है। यद्यपि उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्यापृत होते हैं और जिह्वाग्र भी दूसरे स्वरों की उत्पत्ति में व्यापृत होता है, फिर भी जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सात स्वरों के सात स्वर स्थान बतलाये गये हैं। नारदी शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं। षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ सिर से, गांधार नासिका से, मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद शरीर की संधियों से उत्पन्न होता है। इन सात स्वरों के नामों की सार्थकता बताते हुए नारदीशिक्षा में कहा गया है कि-'षड्ज' संज्ञा की सार्थकता इसमें है कि वह नासा, कण्ठ, उर, तालु, जिह्वा तथा दन्त इन छह स्थानों से उद्भूत होता है। 'ऋषभ' की सार्थकता इसमें है कि वह ऋषभ अर्थात् बैल के समान नाद करने वाला है। 'गांधार' नासिका के लिए गन्धावह होने के कारण अन्वर्थक बताया गया है। 'मध्यम' की अन्वर्थकता इसमें है कि वह उरस् जैसे मध्यवर्ती स्थान में आहत होता है। 'पंचम' संज्ञा इसलिए सार्थक है कि इसका उच्चारण नाभि, उर, हृदय, कण्ठ तथा सिर-इन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से होता है। १२. (सू.४१) नारदीशिक्षा में प्राणियों की ध्वनि के साथ सप्त स्वरों का उल्लेख नितान्त भिन्न प्रकार से मिलता है। - षड्ज स्वर-मयूर। ऋषभ स्वर-गाय। गांधार स्वर-बकरी। मध्यम स्वर-क्रौंच। पंचम स्वरकोयल। धैवत स्वर-अश्व। निषाद स्वर-कुंजर। १५. नरसिंघा (सू.४२) एक प्रकार का बड़ा बाजा जो तुरही के समान होता है। यह फूंक से बजाया जाता है। जिस स्थान से फूंका जाता है वह संकडा और आगे का भाग क्रमशः चौड़ा होता चला जाता है। १६. ग्राम (सू.४४) यह शब्द समूहवाची है। संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्च्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो। 'ग्राम तीन हैं षड्जग्राम, मध्यमग्राम और गान्धारग्राम। ___षड्जग्राम - इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम चतुःश्रुति, धैवत त्रिश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। इसमें 'षड्ज-पञ्चम', 'ऋषभ-धैवत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम'-ये परस्पर संवादी हैं। जिन दो स्वरों में नौ अथवा तेरह श्रुतियों का अन्तर हो, वे परस्पर संवादी हैं। 1. लंकावतारसूत्र-अथ रावणो......सहयॆ-ऋषभ-गान्धार-धैवत-निषाद-मध्यम-कैशिक-गीतस्वरग्राम-मूर्च्छनादियुक्तेन...... गाथाभिर्गीतैरनुगायति स्म ।। 2. जरनल ऑफ म्यूजिक एकेडमी, मद्रास, सन १९४५, खंड १६, पृष्ठ ३७ ।। 3. नारदीशिक्षा १।५।६,७ : कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः, शिरसस्त्वृषभः स्मृतः । गान्धारस्त्वनुनासिक्य, उरसो मध्यमः स्वरः ।। उरसः शिरसः कण्ठादुत्थितः पंचमः स्वरः। ललाटाद्धैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम्।। 4. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ १२१। 5. नारदीशिक्षा १।५।४,५: षड्ज मयूरो वदति, गावो रंभन्ति चर्षभम्। अजा वदति तु गान्धारम्, क्रौंचो वदति मध्यमम्।। पुष्पसाधारणे काले, पिको वक्ति च पंचमम्। अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं कुञ्जरः ।। 6. मतङ्ग : भरतकोश, पृष्ठ १८६ ।। 7..भरत : (बम्बई संस्करण) अध्याय २८ पृष्ठ ४३४ ।। 406

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