Book Title: Sthanang Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 467
________________ परिशिष्ट . श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ इसी अर्थ में आत्या हो। इस विषय के विस्तार में न जाकर हम यहाँ इतना कहना उचित समझते हैं कि प्रस्तुत गाथा में रज्जु शीर्षक हमें उस विषय की ओर इंगित करता है जिसमें लोक के विस्तार, लोक संरचना, जघन्य परीत एवं जघन्य युक्त एवं जघन्य असंख्यात का गणित समाहित है। यदि हम यह कहें कि रज्जु का प्रमाण लोकोत्तर प्रमाण की ओर इंगित करता है तो अनुपयुक्त न होगा। शब्दों के अर्थ काल परिवर्तन, विषय परिवर्तन, सन्दर्भ परिवर्तन से कितने बदल जाते हैं। यह विषय भाषाविज्ञान के वेत्ताओं हेतु नया नहीं है। हमारे विचार से रज्जु की व्याख्या में अभयदेव एवं दत्त दोनों ही असफल रहे हैं एवं लक्ष्मीचन्द जैन ने सही दिशा की ओर संकेत किया है। रासी (राशि) :____ इस शब्द की व्याख्या में अभयदेव एवं दत्त में गम्भीर मतभेद है। अभयदेव ने रासी का अर्थ अन्नों की ढेरी किया है जबकि दत्त ने उनकी व्याख्या को पूर्णतः निरस्त करते हुए लिखा___"The term rasi appears in later Hindu works, except this last mentioned one (G.S.S.) and means measurement of mounds of grains. But I do not think that it has been used in the same sense in the cononical works for measurement of heaps of grain has never been given any prominence in later mathematical works and indeed it does not deserves any prominance." __अर्थात् राशि शब्द गणितसार संग्रह के बाद के सभी ग्रन्थों में अन्नों की ढेरी के मापन के सन्दर्भ में आया है किन्तु मैं नहीं समझता कि यह प्राचीन सिद्धान्त-ग्रन्थों में भी इसी सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ होगा। अन्नों की ढेरी के मापन को बाद के ग्रन्थों में भी कोई महत्त्व नहीं दिया गया और न यह दिया जाने योग्य है। उन्होंने आगे लिखा है कि राशि का अर्थ अन्नों की ढेरी संकुचित है एवं यह शब्द व्यापक रूप से ज्यामिति की ओर इंगित करता है। परवर्ती हिन्द गणित ग्रन्थों में यह प्रकरण खात व्यवहार के अन्तर्गत आया है एवं राशि इसका एक छोटा भाग है। ____प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन ने एक स्थान पर रासी का अर्थ समुच्चय/अन्नों की ढेरी लिखा है। हमारे विचार में सूरि एवं दत्त दोनों के अर्थ समीचीन नहीं हैं। समुच्चय अर्थ अनेक कारणों से ज्यादा उपयुक्त लगता है। राशि शब्द की व्याख्या करते हुए जैन ने लिखा है कि इस पारिभाषिक शब्द पर गणित इतिहासज्ञों ने ध्यान नहीं दिया। राशि के अभिवृत्त-सेट (Set) जैसे ही हैं। राशि के पर्यायवाची शब्द समूह, ओघ, पुंज, वृन्द, सम्पात, समुदाय, पिण्ड, अवशेष तथा सामान्य हैं। जैन कर्म एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य में वीरसेन (८२८ ई० लगभग) तक इसका उपयोग अत्यधिक होने लगा था। इसका उपयोग परवर्ती हिन्दू गणित ग्रन्थों में त्रैराशिक पंचराशि के रूप में भी हुआ है। अभिधान राजेन्द्रकोष में राशि का प्रयोग समूह, ओघ, पुंज, सामान्य वस्तुओं का संग्रह, शालि, धान्यराशि, जीव, अजीव राशि, संख्यात राशि के रूप में बतलाया गया है। तिलोयपण्णत्ति (४७३-६०९ ई०) में सृष्टि विज्ञान के सन्दर्भ में प्रयुक्त समुच्चयों हेतु राशि का अनेकशः उपयोग हुआ है। किसी भी राशि के अवयव का उसी राशि के सदस्यता विषयक सम्बन्ध होता है। राशि की संरचना करने वाले ६ द्रव्य निम्न हैं :1. देखें सं०-३, पृ० १२० । 2. देखें सं०-१, पृ० ३५ । 3. देखें सं०-८, पृ० ४३ । 419

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