Book Title: Sthanang Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 471
________________ परिशिष्ट परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य ॥ ५ ॥ पुग्गल जावं तावं घणे य घणवग्ग वग्गे य । 1 इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या १० ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पो त के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है। अर्थात् यहाँ पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं। शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना जाये ? इस संदर्भ में दत्त महोदय ने तो स्पष्ट लिखा है कि Pudgala as a topic for discussion in mathematics is meaningless.4 अर्थात् पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय स्वीकार करना निरर्थक है। किन्तु विचारणीय यह है कि यह निष्कर्ष आप के द्वारा तब दिया गया था जब कर्म सिद्धान्त का गणित प्रकाश में नहीं आया था । उस समय तक Relativity के संदर्भ में जैनाचार्यों के प्रयास भी प्रकाशित नहीं हुये थे। आज परिवर्तित स्थिति में यह निष्कर्ष इतनी सुगमता से गले नहीं उतरता। क्योंकि असंख्यात विषयक गणित, राशि गणित (Set theory) आदि का मूल तो पुद्गल ही है। मापन की पद्धतियाँ तो यहीं से प्रारम्भ होती हैं। एक तथ्य यह भी है कि शीलांक ने भी तो इसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से ही उद्धृत किया होगा। लेकिन समस्या यह है कि पुद्गल को गणित का विषय स्वीकार करने पर विकल्प छूट जाता है। जबकि विकल्प तो अत्यधिक एवं निर्विकल्प रूप से जैन ग्रन्थों में आता है। यहाँ हमें बृहत्कल्प भाष्य की एक पंक्ति कुछ मदद करती है। भंग गणिताई गमिक मलयगिरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि भंग (विकल्प) एवं गणित अलग-अलग हैं । " संक्षेप में यह विषय विचारणीय है एवं अभी यह निर्णय करना उपयुक्त नहीं है कि पुद्गल को गणितीय अध्ययन का विषय स्वीकार किया जाये अथवा नहीं। इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है। १. ' Agrawal, N.B. Lal ३. Dutt, B.B. २. Bose, D.M. & Sen, S. N. "A Concise History of Sciences in India" I.N.S.A. - New Delhi, 1971 "The Jaina School of Mathematics" B.C.M.S. (Calcutta) 21 pp. 115-143, 1929 ४. Dutt, B.B. & Singh, A. N. 'हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास' ( हिन्दी संस्करण) अनु० डॉ० कृपाशंकर शुक्ल - उ०प्र० हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, लखनऊ, १९६७ ५. Jain, G.R. ६. Jain, L. C. 'गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' आगरा वि.वि. में प्रस्तुत शोथ - प्रबन्ध १९७२ । "Cosmology Old & New (Hindi Ed.) Bhartiya Jnanpitha, New Delhi, 1974 'तिलोयपण्णत्ति का गणित' अन्तर्गत जम्बुद्दीवपण्णत्तिरागते, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९५० 1. सूत्रकृतांग - श्रुतस्कंध - २, अध्याय- १, सूत्र - १५४ । 2. देखें स० - ३, पृ० १२० । 3. ठाणं, पृ० ९९४ । 4. देखें सं०-३, पृ०१२० । 5. बृहत्कल्पभाष्य, १४३ । 6. देखें सं० १०, पृ० xiii 423

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