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श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २
परिशिष्ट - इन ग्रन्थों में उपर्युक्त बीस परिकों और आठ व्यवहारों का वर्णन है। सूत्रों के साथ-साथ अपने प्रयोग को समझाने के लिए उदाहरण भी दिये गये हैं। भास्कर द्वितीय ने लिखा है कि लल्ल ने पाटीगणित पर एक अलग 'ग्रन्थ लिखा है।
यहां श्रेणी व्यवहार का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। सीढ़ी की तरह गणित होने से इसे सेढी व्यवहार या श्रेणी-व्यवहार कहते हैं। जैसे-एक व्यक्ति किसी दूसरे को चार रुपये देता है, दूसरे दिन पांच रुपये अधिक, तीसरे दिन उससे पांच रुपये अधिक। इस प्रकार पन्द्रह दिन तक वह देता है। तो कुल कितने रुपये दिये?
प्रथम दिन देता है उसे 'आदि धन' कहते हैं। प्रतिदिन जितने रुपये बढ़ाता है उसे 'चय' कहते हैं। जितने. दिनों तक देता है उसे 'गच्छ' कहते हैं। कुल धन को श्रेणी-व्यवहार या संवर्धन कहते हैं। अन्तिम दिन जितना देता है उसे 'अन्त्य धन' कहते हैं। मध्य में जितना देता है उसे 'मध्य धन' कहते हैं।
विधि - जैसे गच्छ १५ है। इनमें एक घटाया १५-१=१४ रहे। इसको चय से १४ x ५ गुणा किया = ७० आये। इसमें आदि धन मिलाया ७०+४=७४। यह अन्त्य धन हुआ। ७४+४ आदि धन = ७८ का आधा ३९ मध्य धन हुआ।
३९ x १५ गच्छ = ५८५ संवर्धन हुआ।
इसी प्रकार विजातीय अंक एक से नौ या उससे अधिक संख्या की जोड़, उस जोड़ की जोड़ वर्गफल और घनफल की जोड़, इसी गणित के विषय हैं।
३. रज्जु - इसे क्षेत्र-गणित कहते हैं। इससे तालाब की गहराई, वृक्ष की ऊंचाई आदि नापी जाती है। भुज, कोटि, कर्ण, जात्यतिस्र, व्यास, वृत्तक्षेत्र और परिधि आदि इसके अंग हैं।
४. राशि - इसे राशि-व्यवहार कहते हैं। पाटीगणित में आये हुए आठ व्यवहारों में यह एक है। इससे अन्त की ढेरी की परिधि से उसका 'घनहस्तफल' निकाला जाता है।
अन्न के ढेर में बीच की ऊंचाई को वेध कहते हैं। मोटे अन्न चना आदि में परिधि का १/१० भाग वेध होता है। छोटे अन्न में परिधि का १/११ भाग वेध होता है। शूर धान्य में परिधि का १/९ भाग वेध होता है। परिधि का १/६ करके उसका वर्ग करने के बाद परिधि से गुणन करने से घनहस्तफल निकलता है। जैसे-एक स्थान पर मोटे अन्न की परिधि ६० हाथ की है। उसका घनहस्तफल क्या होगा?
६० + १० = ६ वेध हुआ। परिधि ६० ६ = १० इसका वर्ग १०x१० = १०० हुआ। १००.४ ६ वेध = ६०० घनहस्तफल होगा।
५. कलासवर्ण - जो संख्या पूर्ण न हो, अंशों में हो - उसे समान करना 'कलासवर्ण' कहलाता है। इसे सम्च्छेदीकरण, सवर्णन और समच्छेदविधि भी कहते हैं (हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १७९)। संख्या के ऊपर के भाग को 'अंश' और नीचे के भाग को 'हर' कहते हैं।
जैसे - १/२ और १/३ है। इसका अर्थ कलासवर्ण ३/६२/६ होगा। ६. यावत् तावत् - इसे गुणाकार भी कहते हैं।
पहले जो कोई संख्या सोची जाती है उसे गच्छ कहते हैं। इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या को वाञ्छ या इष्टसंख्या कहते हैं।
गच्छ संख्या को इष्ट-संख्या से गुणन करते हैं। उसमें फिर इष्ट मिलाते हैं। उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं। तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने का भाग देने पर गच्छ का योग आता है। इस प्रक्रिया को
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