Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श मूलतः यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र" में कल्प और व्यवहार के प्रमाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रमाण्य स्वीकार किया गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। 10 प्रकीर्णक इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं -- 1. चउसरण (चतुःशरण), 2. आउरपच्चाक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), 3. भत्तपरिन्ना (भक्तपरिज्ञा), 4. संथारय (संस्तारक), 5. तंडुलवेयालिय (तंदुलवैचारिक), 6. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), 7. देविन्दत्थय (देवेन्द्रस्तव), 8. गणिविज्जा (गणिविद्या), 9. महापच्चाक्खाण ( महाप्रत्याख्यान) और 10 वीरत्थय (वीरस्तव)। श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें से 9 प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसत्र में मिल जाता है। अतः इन्हें अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इसकी विस्तृत चर्चा आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित महापच्चक्खाण की भूमिका में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित मतभेद पाया जाता है। लगभग 9 नामों में तो एक रुपता है किन्तु भत्तपरिन्ना, मरणविधि और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने पइण्णयसुत्ताइं, प्रथम भाग की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग निम्न 22 ग्रन्थों का उल्लेख किया है इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताइं नाम से 2 भागों में प्रकाशित है। अंगविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की ओर से हुआ है। ये बाईस प्रकीर्णक निम्न है-- 1. चतुःशरण, 2. आतुरप्रत्याख्यान, 3. भक्तपरिज्ञा, 4. संस्तारक, 5. तंदुलवैचारिक, 6. चन्द्रवेध्यक, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणिविज्जा, 9. महाप्रत्याख्यान, 10. वीरस्तव, 11. ऋषिभाषित, 12. अजीवकल्प, 13. गच्छाचार, 14. मरणसमाधि, 15. तित्थोगालिय, 16. आराधनापताका, 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, 18. ज्योतिष्करण्डक, 19. अंगविद्या, 20. सिद्धप्राभृत, 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं, यथा-- "आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की कृति है। इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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