Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा : 53 हडडी की तरह. 4. हथेली और आँवले की तरह. 5. दही और मक्खन की तरह. 6. तिल की खली और तेल की तरह, 7. ईख के रस और उसके छिलके की तरह एवं 8. अरणि की लकड़ी और आग की तरह। इस प्रकार जैनागमों के प्रस्तुत ग्रन्थ में ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। पुनः उनकी देहात्मवादी मान्यता के आधार पर उनकी नीति सम्बन्धी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया गया है-- यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं है। इसी प्रकार क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, भला-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं है। अतः प्राणियों के वध करने, भूमि को खोदने, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन पकाने आदि क्रियाओं में भी कोई पाप नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की युक्तियुक्त समीक्षा न करके मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है ऐसा प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में फंस जाते हैं। इसी अध्याय में पुनः पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत और छठाँ आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि इस जगत में पंचमहाभूत ही सब कुछ है। जिनसे हमारी क्रियाअक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, नरक गति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति, अधिक कहाँ तक कहें तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी (इन्हीं पंचमहाभूतों से) होती है। उस भूत समवाय (समूह) को पृथक्-पृथक् नाम से जानना चाहिए जैसे कि पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभूत है। ये पाँच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित नहीं हैं न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनवाये हुए हैं, ये किये हुए नहीं है न ही ये कृत्रिम हैं और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित है, तथा अवन्ध्य-आवश्यक कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत है। यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई भी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता है जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकों का उल्लेख हुआ हो। प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचमहाभूतवादियों के उपरोक्त विचारों के साथ-साथ पंचमहाभूत और छठा आत्मा ऐसे छः तत्त्वों को मानने वाले विचारकों का भी उल्लेख हुआ है। इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सत् का विनाश नहीं होता और असत की उत्पत्ति नहीं होती। इतना ही जीवकाय, इतना ही अतिकाय और इतना ही समग्र लोक है। पंचमहाभूत ही लोक का कारण है। संसार में तृण-कम्पन से लेकर जो कुछ होता है वह सब इन पाँच .. Jain Education International For Private & Personal Use Ong www.jainelibrary.org

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