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प्रो. सागरमल जैन
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प्राचीनकाल से लेकर वर्त्तमान काल तक कुछेक अपवादों को छोड़कर सभी जैनाचार्यों ने सकारात्मक अहिंसा के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार किया | वे सदैव ही गृहस्थ के लिए उसे आचरणीय मानते रहें हैं। आज चाहे भारत में जैनों की संख्या मात्र 1% हो किन्तु उनके द्वारा संचालित चिकित्सालयों, पशु-पक्षी चिकित्सालयों, गोशालाओं, पांजरापोलों, विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या कहीं अधिक है। आज देश में इस प्रकार की लोकमंगलकारी प्रवृत्तियों में जुड़ी हुइ जो संस्थाएँ अथवा ट्रस्ट हैं, उनमें लगभग 30% जैनों के द्वारा संचालित है । अकालादि के अवसरों पर प्राणियों के रक्षार्थ जैन समाज का जो योगदान होता है । उसे कोई भी नहीं भुला पाता । जब भी मानव समाज ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के भी जीवनरक्षण का प्रश्न आया है, जैन समाज ने सदैव ही उसमें आगे बढ़कर हिस्सा लिया है। जैन समाज में आज भी अनेक ऐसे मूक कार्यकर्त्ता हैं जो तन-मन-धन से लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों में अपना योगदान देते हैं। इसके पीछे सदैव ही जैन आचार्यों-मुनिजनों की प्रेरणा निहित रही । जैनधर्म में अहिंसा के इस सकारात्मक पक्ष का कितना मूल्य और महत्त्व है इसके लिए हम अपनी ओर से कुछ न कह कर प्रश्न- व्याकरणसूत्र के ही निम्न वचन उद्धृत करना चाहेंगें ।
एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं,
पक्खीणं विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं, खुहियाणं विव असणं, समुद्दमज्झे व पोयवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं,
अडवीमज्झे व सत्थगमण,
एत्तो विसिट्ठतरिया अहिंसा जा सा पुढवी- जल-अगणि- मारुयवणस्सइ-बीय- हरिय - जलयर - थलयर - खहयर - तस - थावर - सव्वभूयखेमकरी ।
यह अहिंसा भगवती जो है, सो
(संसार के समस्त ) भयभीत प्राणियों के लिए शरणभूत है, पक्षियों के लिए आकाश में गमन करने - उड़ने के समान है, यह अहिंसा प्यास से पीडित प्राणियों के लिए जल के समान है, भूखों के लिए भोजन के समान है,
समुद्र के मध्य में डूबते हुए जीवों के लिए जहाज के समान है, चतुष्पद-- पशुओं के लिए आश्रम स्थान के समान है,
दुःखों से पीडित -- रोगीजनों के लिए औषध-बल के समान है,
भयानक जंगल में साथ -- सहयोगियों के साथ गमन करने के समान है।
मात्र यही नहीं, भगवती अहिंसा तो इनसे भी अत्यन्त विशिष्ट है, यह त्रस और स्थावर
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