Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 92
________________ 90 : प्रो० सागरमल जैन कारुणिकता का अर्थ इतना ही है कि वह सबके कल्याण की भावना रखता है किसी का अहित नहीं सोचता है और न किसी का अहित करता ही है। वह अहिंसा के उपदेश के माध्यम से भव्य आत्माओं को दूसरों के अहित और हिंसा से दूर रहने का निर्देश देता है। इस प्रकार परमात्मा या तीर्थंकर की करुणा ईश्वरवादियों के द्वारा कल्पित ईश्वरीय करुणा से भिन्न होती है। तीर्थंकर या बुद्ध जन-जन के कल्याण मार्ग के पथ-प्रदर्शक और समस्त प्राणियों के कल्याण की भावना से युक्त और किसी भी प्राणी के अकल्याण/अहित की भावना से विरत होते हैं। जबकि ईश्वरवादियों का ईश्वर भक्तों के कल्याण एवं दुष्टों के संहार इन दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों से युक्त है। तीर्थंकर, अर्हन्त या बुद्ध की प्रकृति एक सन्त की प्रकृति है। जबकि ईश्वर की प्रकृति एक शासक की प्रकृति है। तीर्थंकर और बुद्ध की करुणा एक संत-हृदय की करुणा है जबकि ईश्वरीय करुणा एक शासक की करुणा है। अतः दोनों में भिन्नता है। ईश्वर के संसार में अवतरण के प्रयोजन के सन्दर्भ में गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं धर्म की स्थापना, साधुओं की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिये संसार में युग-युग में उत्पन्न होता हूँ। जैन-चिन्तन में तीर्थंकर के जन्म का प्रयोजन भी धर्म की स्थापना ही होता है। वह भी संसार के प्राणियों का दुःख और पीड़ाएँ कम हों इसी उद्देश्य से धर्म-तीर्थ की स्थापना करता है। इस प्रकार ईश्वर के अवतरण और तीर्थंकर के जन्म के प्रयोजन में आंशिक रूप से समानता है। किन्तु जहाँ तीर्थंकर धर्म की स्थापना के द्वारा प्राणियों की दुःख-विमुक्ति के लिये जो प्रयत्न करता है वे मात्र दिशा-निर्देशन तक सीमित है। वह प्राणियों को दुःख-विमुक्ति का मार्ग बतलाता है किन्तु किसी को दुःख से मुक्त नहीं करता। इससे मुक्ति तो स्वयं प्राणी अपनी साधना या पुरुषार्थ से पाता है। तीर्थंकर तो मात्र पथ-प्रदर्शक होता है। इस प्रकार तीर्थंकर की करुणा और उसके प्राणियों की दुःख-विमुक्ति के प्रयत्नों की प्रकृति निवृत्ति-मार्गीय परम्परा के अनुरूप निषेधात्मक ही होती है। उसके विपरीत ईश्वर एक सक्रिय व्यक्तित्व होता है। वह न केवल धर्म की स्थापना करता है अपितु साधुजनों का त्राण और दुष्टों का विनाश भी करता है। ईश्वर के अवतरण के प्रयोजन में दुष्टों के विनाश द्वारा ही साधुजनों के परित्राण और धर्म-स्थापना की बात कही गयी है। इस प्रकार जहाँ तीर्थंकर का प्रयोजन प्राणियों की दुःख-विमुक्ति हेतु धर्म-मार्ग की स्थापना करना है वहाँ अवतार का प्रयोजन दुष्टों के विनाश एवं साधुजनों की रक्षा के द्वारा ही धर्म की स्थापना करना है। इस प्रकार दोनों में प्रयोजन की दृष्टि से भिन्नता है। ईश्वर के अवतार और तीर्थंकर के जन्मग्रहण में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि अवतारवाद की अवधारणा में एक ही ईश्वर बार-बार संसार में जन्म लेता है, जबकि तीर्थंकर या बुद्ध की अवधारणा में प्रत्येक तीर्थंकर या बुद्ध भिन्न-भिन्न व्यक्ति होते हैं। जहाँ सभी अवतार भिन्न-भिन्न होते हुए भी उसी एक ईश्वर के अवतार होते हैं। वहाँ प्रत्येक तीर्थंकर एक भिन्न व्यक्ति होता है जो अपनी साधना के द्वारा आध्यात्मिक पूर्णता की इस अवस्था को प्राप्त करने हेतु काल और क्षेत्र विशेष में जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार ईश्वर एक है जबकि तीर्थंकर या बुद्ध अनेक। पुनः ईश्वर का विश्व में अवतरण होता है, वह विमुक्त दशा से संसार-दशा में आता है जबकि तीर्थंकर संसार-दशा से विमुक्त अवस्था को प्राप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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