Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 81
________________ प्रो. सागरमल जैन 79 हिंसा के अल्प-बहुत्व की यह अवधारणा मुख्यतः दो दृष्टि से विचारित की गयी है-- प्रथमतः उस हिंसा, अहिंसा के पीछे रही हुई मनोवृत्ति या प्रेरक तत्त्व के आधार पर जो दो प्रकार का हो सकता है-- 1. विवेक पर आधारित और 2. भावना पर आधारित और दूसरे प्राण-वध के स्वरूप के आधार पर। विवेक पर आधारित कर्म के प्रेरक तत्त्व या मनोभूमिका में मूलतः यह बात देखी जाती है कि वह कर्म क्यों किया जा रहा है। वह कर्तव्य बुद्धि से किया जा रहा है या स्वार्थ बुद्धि से। मात्र कर्तव्य बुद्धि से रागात्मकता के अभाव में जो कर्म किये जाते हैं वे ईर्यापथिक होते हैं। दूसरे शब्दों में उनके द्वारा होने वाला बन्धन यर्थाथ में बन्धन नहीं होता है। इसके विपरीत जो कर्म स्वार्थ पूर्ति के लिए होते हैं वे कर्म बन्धक होते हैं। यह सम्भव है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करते समय हिंसा हो या उसे हिंसा करनी पड़े, किन्तु राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर मात्र कर्तव्य के परिपालन में होने वाली हिंसा बंधक या अनुचित नहीं होती। उदाहरण के रूप में जैन मुनि आवश्यक क्रिया करते समय, प्रतिलेखन करते समय या पद यात्रा करते समय जो शारीरिक क्रियायें करता है उसमें हिंसा तो होती है। चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न रखी जाय ये सभी क्रियायें हिंसा से रहित नहीं है फिर भी इन्हें मुक्ति का ही साधन माना जाता है बन्धन का कारण नहीं। व्यावहारिक क्षेत्र में न्यायाधीश समाज व्यवस्था और अपने देश के कानून के अन्र्तगत कर्तव्य बुद्धि से अपराधी को दण्ड देता है यहाँ तक की मृत्यु दण्ड भी देता है। क्या हम न्यायाधीश को मनुष्य की हत्या का दोषी मानेंगें ? वह तो अपने नियम और कर्तव्य से बँधा होने के कारण ही ऐसा करता है। अतः उसके आदेश से हिंसा की घटना होने पर भी वह हिंसक नहीं माना जाता। अतः मनोभूमिका की दृष्टि से जब तक अन्तर में कषाय भाव या देव-बुद्धि न हो तब तक बाह्य रूप में घटित हिंसा की क्रिया न तो बन्धक होती है और न अनुचित। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि बाहर में हिंसा की घटना घटित हो या न हो प्रमत्त या कषाय युक्त व्यक्ति नियमतः हिंसक ही होता है। इसके विपरीत बाह्य रूप से हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषाय रहित अप्रमादी मुनि नियमतः अहिंसक ही होता है। इसलिए यह मानना कि सकारात्मक अहिंसा में बाह्य रूप से हिंसा की घटना होती है, अतः वह अनुचित है -- एक भ्रान्त दृष्टिकोण है। हिंसा की घटना घटित होने पर भी यदि कर्ता ने वह कर्म मात्र कर्तव्य बुद्धि से किया है, उसके मन में दूसरे को पीड़ा पहुँचाने का भाव नहीं है, तो वह हिंसक नहीं माना जा सकता। जो कर्म विवेकपूर्वक और निष्काम भाव से किये जाते हैं उनमें हिंसा अल्प या अत्यल्प होती है। भावना या रागात्मकता की स्थिति में भी जो प्रशस्त राग-भाव है उसमें हिंसा अल्प मानी गई है। हिंसा-अहिंसा के अल्प-बहुत्व के विचार के सन्दर्भ में दसरा दृष्टिकोण यह है कि यदि दो हिंसाओं के विकल्प में एक का चुनाव करना हो तो हमें अल्प हिंसा को चुनना होगा और उस अल्प हिंसा का आधार जैन आचार्यों ने प्राणियों की संख्या न मान कर उनके ऐन्द्रिक विकास को माना है। यदि हजारो एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा और एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में हिंसा के अल्प-बहुत्व का निर्णय करना हो तो जैनाचार्यों की दृष्टि में हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा अधिक भयंकर मानी गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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