Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 41
________________ प्रो. सागरमल जैन 39 आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. 1900 में सूत्रकृतांग का और वीरनिर्वाण सं. 2000 में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा। ज्ञातव्य है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है। फिर वीरनिर्वाण सं. 20,000 में आचारांग का, वीरनिर्वाण सं. 20500 में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. 20900 में दशवैकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. 21,000 में दशवैकालिक के अर्थ का विच्छेद होगा -- यह कहा गया है। __ज्ञातव्य है कि पण्डित दलसुखभाई ने जैन साहित्य के बृहद् इतिहास की भूमिका (पू. 61) में आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण के 2300 वर्ष पश्चात् लिखा है किन्तु मूल गाथा से कहीं भी यह अर्थ फलित नहीं होता। उन्होंने किस आधार पर यह अर्थ किया यह हम नहीं जानते हैं। हो सकता है कि उनके पास इस गाथा का कोई दूसरा पाठान्तर रहा हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग आगमों के विच्छेद की चर्चा श्वेताम्बर परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर परम्परा ने अंग साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, सुरक्षित रखने का प्रयास किया है। प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत्-तत् ग्रन्थ का सम्पूर्ण रूप से विनाश है ? मेरी दृष्टि में विच्छेद का अर्थ यह नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया। मेरी दृष्टि में विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं जिस रूप से उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य का अपितु अंग साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुतरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि स्थानांग में दस दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषय-वस्तु से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है। अन्तिम वाचनाकार देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैने संकलित किया है। अतः आगम ग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिये कि यह श्रुत-संपदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। वह आंशिक रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई। क्योंकि भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है। विच्देद का क्रम तभी स्का जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया। दिगम्बर परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी यह जो चर्चा है उसके सम्बन्ध में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् श्रुत के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रन्थों के विच्छेद चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस विच्छेद की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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