Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ प्रो. सागरमल जैन 37 तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वी के धारक श्रुतकेवली हुए । इन पाँच आचार्यों का सम्मिलित काल 100 वर्ष है। इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा अविच्छिन्न बनी रही। उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ हुआ । भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव ये ग्यारह आचार्य दस पूर्वी के धारक हुए। इनका सम्मिलित काल 183 वर्ष माना गया है। इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् 345 वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया। इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य एकादश अंगों ज्ञाता हुए। इनका सम्मिलित काल 220 वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान महावीर निर्वाण के 565 वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए। इनका काल ११८ वर्ष रहा। इस प्रकार वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई । इनके बाद आचार्य धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता ) आचार्यों की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग साहित्य का विच्छेद हो गया। मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे । अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवण बेलगोला के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है किन्तु इन सभी सूचियों में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है । यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, जो सातवीं शती से पूर्व का हो। इन समस्त विवरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठीं -सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है । ―― -- ―― श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिय प्रकीर्णक के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है । तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठीं -सातवीं शताब्दी में निर्मित हुआ है। इसका रचना काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति से समरूप ही है। इस प्रकीर्णक का उल्लेख, नन्दीसूत्र की कालिक और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है किन्तु व्यवहारभाष्य (10/704) में इसका उल्लेख हुआ है । व्यवहारभाष्य स्पष्टतः सातवीं शताब्दी की रचना है । अन्ततः तित्थोगालिय पाँचवीं शती के पश्चात् तथा सातवीं शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठीं शताब्दी में निर्मित हुआ होगा । यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है । तित्थोगालिय में तीर्थंकरों की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगवर तथा आवश्यकनिर्युक्ति से इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102