Book Title: Sramana 1995 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ 38 अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह श्वेताम्बर ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज भी मान्यता है। इस ग्रन्थ की गाथा 807 से 857 तक में न केवल पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है अपितु अंग साहित्य के विच्छेद की भी चर्चा है। तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए। आर्य भद्रबाहु स्वर्गवास के साथ ही चर्तुदश पूर्वधरों की परम्परा समाप्त हो गयी। इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दस पूर्वो के अर्थ सहित और शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो के ही ज्ञाता थे। तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम कहा गया है। उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र पाठभेद से सर्वमित्र को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लेखित है कि अनुक्रम से भगवान महावीर के निर्वाण के 1000 वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में पूर्वगत् श्रुत का विच्छेद हो जायेगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार के वर्गों का उल्लेख है, जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते, वे अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना गया है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के 170 वर्ष पश्चात् और दिगम्बर परम्परा के अनुसार 162 वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों का विच्छेद हुआ। यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर है। किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में कोई समरूपता नहीं देखी जाती है। श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम दस पूर्वी हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस पूर्वधर कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता शिवार्य के गुरुओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख तो हुआ है किन्त उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अतः इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है, जो निम्नानुसार है-- उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के 1250 वर्ष पश्चात् विपाकसूत्र सहित छः अंगों का विच्छेद हो जायेगा। इसके पश्चात् वीरनिर्वाण सं. 1300 में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. 1350 में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं. 1400 में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण सं. 1500 में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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