________________
130
सोया मन जग जाए
अजस्र स्रोत जो सतत प्रवहमान है। उसके साथ तादात्म्य जोड़ना, एकात्मकता का अनुभव करना ही पूर्ण समर्पण है। इस स्थिति में चाहे सुकरात हो या मीरां कोई भी व्यक्ति हलाहल विष पी सकता है। वह जहर पीकर भी अमृत की डकार ले सकता है। वह व्यक्ति अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों को झेल सकता है, कष्टों से अप्रभावित रह सकता है। इसी एकात्मभाव को योग की भाषा में 'समापत्ति' कहते हैं। इसके साथ-साथ नई चेतना का उदय होता है, जो दुःख को पास में नहीं फटकने देती। असातवेदनीय कर्म उदय में आकर शरीर को पीड़ा दे सकता है, पर व्यक्ति को दु:खी नहीं बना सकता। ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके शरीर में अपार पीड़ा है पर पछने पर वे कहते हैं कष्ट शरीर को है। मैं तो परम आनन्द में हूं। आनन्द आया कहां से? कष्ट है, पर सता नहीं पाता, क्योंकि व्यक्ति का तादात्म्य उस त्रिवेणी के साथ जुड़ा हुआ है। ___ मैं देखता हूं, एक धार्मिक व्यक्ति भी दु:खी है और एक अधार्मिक व्यक्ति भी दु:खी है। तो फिर धार्मिक और अधार्मिक का भेद करना व्यर्थ है। धर्म की आराधना न करने वाला यदि दु:ख भोगता है तो बात समझ में आ जाती है। पर धर्म की आराधना करने वाला भी दुःख का संवेदन करे तो कुछ अटपटा-सा लगता है। दुःख दोनों को आता है। कोई अपवाद नहीं होता। पर दु:ख भोगना या नहीं, यह व्यक्ति की आन्तरिकता पर निर्भर है। अधार्मिक भी बूढा होता है और धार्मिक भी बूढ़ा होता है। अधार्मिक बुढ़ापे को दु:ख मानकर दु:खी होता है और धार्मिक उसे अनिवार्य मानकर उसको भी सुख का हेतु बना देता है। यही तो अन्तर होता है, धार्मिक और अधार्मिक में। __ हमें धार्मिक की परिभाषा यह बनानी होगी कि जो बुढ़ापा आने पर भी दु:खी नहीं होता, जो वियोग के होने पर भी दु:ख नहीं भोगता, जो रोगग्रस्त होने पर भी दुःखी नहीं होता, वह धार्मिक है। जो इन अवस्थाओं में दुःख का संवेदन कर अपार दुःख भोगता है, वह धर्म से दूर है।
ऐसी स्थिति का निर्माण अभ्यास के द्वारा किया जा सकता है। जो केवल सिद्धान्त की रट लगाते रहते हैं, अभ्यास नहीं करते, वे कभी ऐसी स्थिति का निर्माण नहीं कर सकते। अभ्यास जरूरी है। अभ्यास के द्वारा संवेदना की चेतना से ऊपर उठकर ज्ञान की चेतना तक हम जा सकते हैं। वहां पहुंच कर हम स्पष्ट देख सकते हैं समस्या और दु:ख को अलग अलग। वहीं हम संकल्प कर पाएंगे कि हम न समस्या को स्वीकार करेंगे और न दुःख को। इन दोनों से परे जो ज्ञानचेतना है उसमें जीवन बितायेंगे। ऐसा होने पर सचाई का साक्षात्कार स्वयं होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org