Book Title: Soya Man Jag Jaye
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 197
________________ 196 सोया पन जग जाए हुई है कि हमारे शरीर में सब दो-दो हैं। क्रोध करने का केन्द्र मस्तिष्क में है तो उसके उपशमन का केन्द्र भी मस्तिष्क में है। जितनी वृत्तियां हैं, आवेश-आवेग हैं, उन सबके केन्द्र मस्तिष्क में हैं तो साथ-ही-साथ उन सबके नियन्त्रण-केन्द्र भी मस्तिष्क में हैं। यदि केवल वृत्तियों को जन्म देने वाले या उभारने वाले ही केन्द्र हों और नियामक केन्द्र न हों तो आदमी जी नहीं सकता। दोनों साथ-साथ हैं। शरीर में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं हैं। संवेगों को उद्दीप्त करने की व्यवस्था है तो संवेगों पर नियन्त्रण करने की भी व्यवस्था है। कर्मशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि हमारे शरीर में औदयिक भाव की व्यवस्था है तो क्षायोपशमिक भाव की भी व्यवस्था है। औदयिक भाव विषमता पैदा करता है और क्षायोपशमिक भाव विषमता को कम करता है, समता लाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में जहां चित्त की विषमता मिलेगी वहां कुछ न कुछ समता भी मिलेगी। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है इस संसार में जिसमें केवल विषमता हो या केवल समता हो। जब तक व्यक्ति चेतना के विकास के अन्तिम बिन्दु तक नहीं पहुंच जाता तब तक वह पूर्ण समभाव को प्राप्त नहीं होता। इसलिए साधना करने वाला साधु भी कभी क्रोध में आता है, कभी दूसरे-दूसरे संवेगों का स्पर्श करता है और साधना न करने वाला भी क्षमा करता है, संवेगों का स्पर्श नहीं करता। ये दोनों स्थितियां मिलती हैं। समता की चेतना का पूर्ण विकास, यह आदर्श की बात है, बहुत आगे की बात है। समता या वीतरागता हमारा आदर्श है। हमें उस बिन्दु तक पहुंचना है। वहां पहुंचने पर मूल बीज—राग और द्वेष नष्ट हो जाते हैं। चार अवस्थाएं हैं। एक अवस्था है-उपशमन की, दूसरी है क्षयीकरण की, तीसरी है—विफलीकरण की और चौथी है सफलीकरण की। क्रोध आया। उसको विफल कर डाला, सफल नहीं होने दिया। क्रोध के प्रति क्रोध यह क्रोध के सफलीकरण की प्रक्रिया है। क्रोध के प्रति क्षमा या मौन, यह क्रोध के विफलीकरण की प्रक्रिया है। एक है उपशमन की प्रक्रिया। यह व्यक्ति साधना इतनी कर लेता है कि क्रोध को बाहर नहीं आने देता। भीतर ही उसका उपशमन कर देता है, दबा देता है। आग तो जल रही है, पर उसको राख से ढक देता है, पता नहीं चलता ही आग जल रही है। यह उपशमन की अवस्था है। एक है क्षयीकरण की प्रक्रिया। इसमें सारे दोष क्षय हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। मूल ही समाप्त कर दिया जाता है। वृत्तियां नष्ट हो जाती हैं, फिर न राग है, न अहंकार है और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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