Book Title: Soya Man Jag Jaye
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 202
________________ अनावृत चेतना का विकास 201 यह है खंडित व्यक्तित्व की बिडम्बना। यह होती है मूर्छा के कारण। उसे यह भान नहीं रहता कि मैं किसी की अटेची उठाकर लाया हूं, पर मैं चोर नहीं हूं। और उसे दूसरा उठाकर ले गया तो वह चोर बन गया। चम्मच स्वयं उठाकर लाया तो चोर नहीं बना और नौकर उठाकर ले गया तो चोर बन गया। कैसी विडंबना! खंडित व्यक्तित्व की इतनी अबूझ पहेलियां हैं कि उनका समाधान न कोई समाज कर सका और न कोई मनोवैज्ञानिक कर सका। धर्मगुरु भी इसका समाधान नहीं कर सके। कह देना चाहिए कि इस जटिल समस्या का समाधान कोई भी नहीं कर सका। कारण है. खंडित चेतना। यह चेतना खंडित व्यक्तित्व का ही निर्माण करती है। खंड चेतना होने का कारण है किंचनता। किंचनता का अर्थ है मेरे पास कुछ है, मेरे पास कुछ है। यह भाव चेतना को खंडित कर देता है। जब तक किंचनता का भाव है तब तक खंड-चेतना समाप्त नहीं हो सकती। किंचनता की चेतना आवरण है। यह चेतना को ढकती है। पर एक प्रश्न है कि शरीर के साथ जीने वाला शरीर-धारी प्राणी किंचनता की चेतना से रहित कैसे हो सकता है? क्योंकि शरीर स्वयं एक किंचन है, कुछ है। जब शरीर है तो उसके संचालन के लिए भी कुछ चाहिए। यहीं से किंचनता की बात प्रारंभ हो जाती है। किंचनता की स्थिति में खंडित व्यक्तित्व की बात अवश्य बनी रहती है। इस परिप्रेक्ष्य में अध्यात्म के सामने एक प्रश्न उभरा कि क्या अखंड व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है? इस पर खोज चली। खोज का परिणाम यह निकला कि व्यावहारिक जगत् में अखंड व्यक्तित्व का निर्माण असंभव है, कठिन है। अखंड व्यक्तित्व का निर्माण आंतरिक वास्तविकताओं में हो सकता है। दूसरे शब्दों में, आंतरिक चेतना के धरातल पर अखंड व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। गहरी वास्तविकताओं के आधार पर यह संभव है। इनर रीएलिटी में चेतना की खंडता समाप्त हो जाती है। ___ सबसे पहले समाप्त होता है मिथ्यादृष्टिकोण। दृष्टि को बदला और अखंड दिशा की ओर प्रस्थान हो गया। आकर्षण या रुचि के बदलते ही अखंड व्यक्तित्व की दिशा में दूसरा चरण आगे बढ़ जाता है। ___ मूर्छा टूटती है। जागृति का सातत्य प्राप्त होता है। साधक अपने अस्तित्व के प्रति पूर्ण जागरूक हो जाता है तब अंखड व्यक्तित्व की दिशा में तीसरा चरण आगे बढ़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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