Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 11
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ पढमकइचकवट्टीण नमह सिरिइंदभूइपमुहाण । सुयसायरम्मि जाणं इयरकई तणमिव तरंति ।।९।। सिरिपालित्तय कइबप्पट्टि हरिभद्दसूरिप्प(प)मुहाण । किं. भणिमो जाणज्जवि न गुणेहिं समो जए सुकई ॥१०॥ वा(भा?)से विरयम्मि जए कालंतरिए य कालदासम्मि । धणवालो सुकइत्तण-भारुव्वहणम्मि जइ धवलो ।।११।। सच्छंदपयपयारो निरभिप्पायप्पहासणपरो य । सुकइत्तणगहगहिओ बुहाण हासं गमिस्सामि ।।१२।। ते कत्थ महाकइणो रविणोव्व जए पयासियपयत्था । कत्तो खज्जोया इव मारिसकइणो पयइतुच्छा ।।१३।। जइ वेवं तहवि ससत्ति-सरिससत्तोवयारहियएण । । अहमुज्जुत्तो न उणो सुकइत्तगुणाहिमाणेण ।।१४।। उसहाइएहिं जइ किर अणुवमविरिएण साहिउ मोक्खो । ता संपइ इयरजणो मा तत्थ समुज्जमं कुणउ ? ।।१५।। संतेसु वि पुव्बकइंद-विविहधम्मोवएससत्थेसु । जहसत्ति मारिसो वि हु उवयारं कुणइ, किमजुत्तं ? ||१६।। निययसहावसरिच्छं भुयणं परिणमइ सज्जण-खलाण । सिय-असियसहावाणं पक्खाण व सेय-किण्हाण ।।१७।। परमत्थसज्जणाणं इयराण वि होति न हु उवाहीओ । धवलिज्जइ केण ससी कसणिज्जइ केण राहू वि ।।१८।। जे जाणिऊण दोसं सलं च समुद्धरंति ते सुयणा । जे उण गुणमवि दोसं भणति ते दुज्जणा निययं ।।१९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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