Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 19
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सयलकलासंपत्तो अमयमओ विमलगुणमहग्घविओ । पढमउदयम्मि पावइ रायं पुरिसो नवससिव्व ।।९६।। लद्धा खणेण विहडइ लच्छी चिरविहडिया वि संघडइ । सरए पवणपणोल्लिय-जलहरछायव्व चलरूवा ।।९७।। अइगरुअमहीहरविसमदुग्गभूभागगोविया लच्छी । न विणा विक्कम-साहस-मेसा सीहिव्व सुहसज्झा ॥९८।। दिट्ठा खणेण विहडइ रणंगणे सायरम्मि नावव्व । अन्नायवराहक्खडयताडिया कयपयत्ता वि ॥९९।। एसा अणत्थसयसाहियावि बहुअणत्थसंजणणी । अइजत्तपालणीया मंतीहिं महाभुयंगिव्व ॥१००।। उज्जलगुणकलियं पि हु मइलेइ सिरी नरं न संदेहो । वायालिव्व खणेणं दूरं वुड्डिंगया जइ वि ॥१०१।। जह न च्छ(छ)लिज्जसि लच्छीए वच्छ ! तह कहवि वीर ! ववहरसु । उवहुत्तवारुणीओ अवस्स मोहिज्जए पुरिसो ॥१०२।। जह न कसाया पसरंति हरिणनयणाओ जह य न हरंति । न वसे कुणंति विसया अप्पाणं तह परिहवसु ॥१०३।। इंदियचोरा तह कुणसु तुज्झ न हरंति जह विवेयवणं । तत्थेव यवणबुद्धी अणवरयं वीर ! कायव्वा ।।१०४।। इय भणिऊणं विरओ महोयही जाव ताव कुमरो वि । तव्वयणायन्नणअमयभरियहियओव्व संजाओ ।।१०५।। मंतिस्स भाविऊ पसन्नगंभीरवयणविन्नासं । हरिविकूमो वि मंतिं भणइ तओ सविणयं एयं ।।१०६।। १. इन्द्रियाण्येव यवनाः-म्लेच्छा इति बुद्धिः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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