Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
पसरंतपुराणमहाकविंदकयकव्वगुणवियारेण । नीसेससहाविबुहाण हिययतोसं जणेमाणो ॥ ७४ जावच्छ ताव तहिं सेवावसरं निउत्तपुरिसेहिं । विन्नत्तो संभंतो जणयसमीवं तओ चलिओ ॥ ७५ ॥ आरूढो सुहयरवरकरेणुखंधंमि सहियरणवीरो । सर, ओसर, संभालहि, भणतपाइकपरियरिओ ॥७६|| अग्गे 'धाणुक - णुमग्गकुंत फारक फारपरिवारो । तदंसणूसुयाणेयनयरिजणजणियसंतोसो ॥ ७७ ।। पत्तो संभंतनमंतधंत-सेवयपयासियप्पणओ । निवमंदिरं कुमारो पडिहार अभुट्ठिओ अहसा ॥७८॥ पडिहारपदरिसियमग्गलग्गरणवीरबाहु आलग्गो ।
'जय देव ! कुणसु दिट्ठिप्पसाय' मिइ निसुयहलबोलो ॥ ७९ ॥ अह विविहमहामहिवाल- मौडमणिकिरिणजालजडिलम्मि । अत्थाणम्मि पविट्ठो पहिट्ठनिवदूरसच्चविओ ॥ ८० ॥ अइचंडदंडिहक्कासंखुद्धनरेंददिन्नपिमग्गो ।
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
पिउभत्तिभरनिरंतर चलणग्गनिविट्ठनियदिट्ठी ॥ ८१ ॥ वसुहाविलुलियसियहारकिरणविच्छुरियपिहुलवच्छ्यलो । पिउणोव्व पयजुएसुं हिययविसुद्धिं पयासंतो ॥८२॥ पडिओ पाएस तओ पुव्विं परिकप्पियम्मि पिउवयणा । उवविट्ठो महरिह- आसणम्मि हरिविकुमकुमारो ||८३ ॥ सुयनिव्विसेसहिययं नरवइणा जणियगरुयसम्माणो । कुमरस्स पिट्टभागे उवविट्ठो तयणु रणवीरो ॥ ८४ ॥ १. धणु० ला ॥ २. पडिहा अ० ला ॥। ३. मउड ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 838