Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सइ-गोरि-रई तीए हीणुवमा सक्क-हर-अणंगाण । परदारिय-कावालिय-अकम्मकारीण जा भज्जा ।।५२।। मुख-नयन-कण्ठ कुचयुग-रोमावलि-नाभि-जघन-जानाम् । तच्चरणयोर्यथाक्रम-मुपमानं विद्धि कमलादीन् ॥५३।। नदीपक्षे पुनः कमलोत्पलादिभिरुपलक्षिता सरिदिति ।। कमलुप्पल-कंबु-रहंग-दुव्व-आवत्त-पुलिणरभाहिं ।। कुम्मेहिं जा विरायइ निवस्स कीलाचलसरिव्व ॥५४।। अन्नोन्नपेम्मरसपरवसाण चेयन्नविणिमएणं व्व । समसुहदुहत्तरूवं लक्खिज्जइ ताण फुडमेव ॥५५।। अवरंतेउरजुवईसु न तस्स जह तीए हिययसंतोसो । न तहा अवरतिहीसुं जह सोहइ पुन्निमाए ससी ।।५६।। [रू]व-कला-गुण-जोव्वण-रज्जंग-विलास-भूसण-सिरीओ । सुहयंति तस्स हियए अणुकूलकलत्तलाहेण ॥५७।। एवं च पुन्नपयरिस-संपाइयसयलसुहसमूहस्स । वच्चंति तस्स दियहा सुरज्जसुहमणुहवंतस्स ।।५८।। अह कमलसिरीसुहगब्भसंभवो अत्थि तस्स पियपुत्तो । हरिविकूमोत्ति नामं पच्चक्खो पुन्नरासिव्व ॥५९।। अणवडिओ पयाणं पीडायारी य अणभिगम्मो य ।। पडिहयगुरु-बुहतेओ कह तेण समो रवी होइ ।।६०।। सूरहयतेयपसरो सुहेक्वपक्खो य खंडणासहिओ । संभावियदोसुदओ कह णु ससंको समो तेण ।।६१।। वसुहाबाहिरभूओ महिओ बद्धो य जलमओ उयही । १. दुर्वा ।। २. रंमाहिं ला. ।।
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