Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 13
________________ इय भाविऊण सम्मं धम्मुवएसप्पयाणसुविसुद्धं । सिरिभुयणसुंदरीए चरियाणुगयं कहं सुणह ॥ ३१॥ इह दाहिणद्धभारह - मज्झिमखंडस्स मंडणं अत्थि । उवहसियसुरनिवासा अउज्झ नामा महानयरी ||३२|| सुविभत्ततिय- चउक्का सुपवंचियचच्चरा विचित्तपहा । सुविसालविपणिमग्गा फलिहुज्जलसालपरिकलिया ||३३|| पायालोयरगंभीर-भीमपरिहाइ परिगया सहइ । अमराउरिव्व रम्मा जलम्मि संकंतपडिबिंबा ||३४|| निम्मलमणिमयपासाय- सिहरपसरतकिरि (र) णहत्थेहिं | जा पेल्लइव्व दूरं जोइसचकं अकिंचिकरं ||३५ ॥ विमलमणिभासियाए उदयत्थमणाइं जत्थ रविणो वि । कमलाण वियास- निमीलणेहिं नज्जंति लोएहिं ||३६|| जत्थ य सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ पुव्वाभासित्त-परोवयार - दक्खिन्न - सच्चकरुणहो । सुकयन्नुत्तण-सद्धम्मकम्मजुत्तो परिसवग्गो ॥३७॥ रूवविणिज्जियसुरसुंदरीओ मणहरसुवेसलडहाओ । सोहग्गसंगयाओ सुसीलकलियाओ नारीओ ||३८|| जा चक्कवट्टिमुत्तिव्व सुत्थिया तह अदिट्ठपरचक्का | सज्जणगोव्वि सया गुणुज्जला दोसरहिया य ||३९|| जा समवसरणभूमिव्व भुवणअच्चब्भुया सुरकया य । कमलोवासा नल (लि) णिव्व बहुगुणा पत्तकलिया य ॥४०॥ २. प्रदोषः ॥ १. अत्थ ला. ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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