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जिनप्रतिमाओं के लेख
संपादक- आर्य मेहुलप्रभसागर वर्तमान काल में भवसमुद्र से पार उतरने हेतु शास्त्रकार भगवंतों ने दो मुख्य मार्ग बताए हैं- १. जिन प्रतिमा तथा २. जिनवाणी। प्रथम मार्ग में स्थापित जिनप्रतिमा, जिनमंदिर एवं तीर्थों के प्रति चतुर्विध संघ की श्रद्धा पुरातन काल से ही प्रचलित है। जिसके संदर्भ आगमों, टीकाओं सहित अनेक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में उपलब्ध हैं। जिनप्रतिमा, जिनमंदिर निर्माण के समय प्रतिमा एवं मंदिर के उचित स्थान पर निर्माणकर्ता व प्रतिष्ठाकारक के नामादि उत्कीर्ण किये जाते रहे हैं। ये उल्लेख समयांतर में ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में विश्व के लिए विरासत बनते हैं।
इन उल्लेखों में तत्कालीन नगर, जैनाचार्य, गृहस्थनाम आदि अनेक प्रकार की विशिष्ट जानकारियों के साथ-साथ धर्म एवं संस्कृति की व्यापकता का सटीक अनुमान होता है।
विगत माह में केसरियाजी तीर्थ से इंदौर के लिए चातुर्मास हेतु विहार हुआ। इस दौरान साबला, बांसवाडा, रूई, सांवेर आदि स्थानों पर विराजित प्रतिमाजी के लेखपठन का अभ्यास किया। उनमें से कुछ प्रतिमालेख अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत हैं। पठन में यदि स्खलना हुई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
ये लेख विक्रम की चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के हैं। ये लेख कहीं प्रकाशित हों यह ज्ञात नहीं । सुज्ञ अवगत करावें।
श्रीसंघ के प्रतिनिधियों से निवेदन है कि प्राचीन विरासत के महत्व को समझकर प्राचीनता को कायम रखते हुए प्रतिमालेख आदि विविध सामग्री का सुव्यवस्थित प्रबंध करें।
निम्न प्रतिमालेखों में क्रमांक १ से ४ तक बांसवाडा के प्राचीन बावन देहरी मंदिर स्थित जिनप्रतिमाओं के हैं, जो मंदिर के रंगमंडप में कांच की दर्शनीय आलमारी में बिराजित हैं। क्रमांक ५ का प्रतिमालेख उज्जैन के रूई गाँव के जिनमन्दिर में स्थापित जिनप्रतिमा का है। क्रमांक ६ से १० तक के प्रतिमालेख बांसवाडा जिले स्थित साबला गाँव के जिनमंदिर में विराजित जिनप्रतिमाओं के हैं तथा क्रमांक ११से १४ तक के लेख उज्जैन जिले के सांवेर गाँव के जिनमन्दिर में विराजित जिनप्रतिमाओं के हैं।
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