Book Title: Shreyans Jin Stava Author(s): Bhuvanchandravijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 5
________________ अनुसन्धान-३८ जीरे पंचमुष्टी करे लोच इंद्र कचोलो आगल धरे जी० जीरे एक सहस नर साथ पुर्वाह्न समें दीक्षा वरें जी० ॥१४|| जीरे तेहवें चउनाण उपन्न देवदुष्य एक लाखनो भलो जी० जीरे सिद्धारथपुरें पहुत नंद नामे ते इभ्य गुणनीलो जी० ॥१५।। जीरे खीरे पारणुं तस गेह पंच दीव्य प्रगट थया जी० जीरे साडीबार कोडिसोवन वृष्टि त्रीजे भवें नंद मोक्षं गयो जी० ॥१६।। जीरे मास अडनो उक्कोस तपमान विहार करें आरिज देशमां जी० जीरे प्रमाद नहें लवलेश उपसम्ग नहिं उपशमा जी० ॥१७॥ जीरे छद्मस्थ काल बे मास माघ वदि-नष्टचंद्र' वासरे जी० जीरे सिंहपुरी वन सहसाम्र तिन्दूक तरु बार गुणो आसरे जी० ॥१८॥ जीरे तेह तरुवरि ध्यान धरंत छठ पुर्वाह्न चंद्र वहे जी० जीरे ते दिन केवल लहंत बुध चतुरसागर सीस इम कहें जी० ॥१९॥ ॥सर्वगाथा-४२ ॥ ॥ दूहा ॥ कर्म हणी केवल लह्यो एकादशम अरिहंत । इंद्रादिक आवि तिहां प्रभु पद सीस ठवंत ॥१॥ वांदि सूरपति इंद्र कहे प्रभुने नाण उपन्न । ते माटे त्रिगडुं रचो नव नव भक्ति निप्पन्न ॥२॥ एहतुं सुर सहु सांभली प्रथम तव वायकुमार । जोयण एक मही सारवें टालें तुण रज अंधार ||३|| मेधकुमार मन हर्षस्युं सुरभादिक जलधार । ते उपरि षट् ऋतु तणा वरसें फुल अपार ॥४|| तव व्यंतर सूरपति रचें मणिकनक रत्रमइ पीठ । ते उपरि पंच वर्ण कुसुम जानुप्रमाण सूपइष्ट ।।५।। उधई बेटें कूशम धरें वाणव्यंतर तिहां देव । चोसठि इंद्र प्रभुने स्तवी ललित वचन कहे ततखेव ॥६॥ ऋद्धि अनंती तुम तणी में किम वणि जाय । ज्ञान दिवाकर साहिबा द्यो मुझ निजर पसाय ॥७॥ १. अमावास्यादिने इत्यर्थः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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