Book Title: Shraman Sanskriti ki Ruprekha Author(s): Purushottam Chandra Jain Publisher: P C Jain View full book textPage 7
________________ (ख) का व्यापक रूप में पालन लुप्त होता जा रहा है । इसका परिणाम यह हुआ है कि समाज में सर्वत्र फूट, ईर्ष्या, कलह और मिथ्या प्रचार का साम्राज्य है । अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को तिलाञ्जली दी जा रही है । प्रेम और शान्ति के संदेश को ठुकराया जा रहा है । सम्प्रदायवाद के झूठे वितण्डावाद में धन का महान् अपव्यय किया जा रहा है और शिक्षा जो राष्ट्र और समाज के निर्माण के लिये परमावश्यक है, उस की ओरे उचित ध्यान नहीं दिया जाता। इस के अतिरिक्त अवनति का एक कारण और भी है । जैन साहित्य को देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि जैनधर्म किसी समय में विद्वानों का धर्म था किन्तु अहिंसा प्रधान धर्म होने के कारण इस के अनुयायियों ने न्यूनतम हिसा वाले व्यापार व्यवसाय को अपनाया। व्यापार से लक्ष्मी का आगमन स्वाभाविक है और लक्ष्मी के चक्र में पड़ा हुआ मानव अपने धर्म और संस्कृति को भूल जाए या उस की उपेक्षा करदे यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं । अस्तु, वर्तमान समय में जैनधर्म व्यापक रूप में व्यापारियों का धर्म ही रह गया है। जो भी कुछ जैन धर्म का प्रचार यत्र तत्र दृष्टि गोचर होता है उस का श्रेय जैनमुनि राजों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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