Book Title: Shatkhandagama Pustak 06 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati View full book textPage 8
________________ माक कथन षट्खंडागमके पांचवें भागके प्रकाशित होनेके कोई डेढ वर्ष पश्चात् यह छठवां भाग पाठकोंके हाथ पहुंच रहा है । एक तो चूलिका खंड ही अन्य सब भागोंसे विस्तृत है; दूसरे इसकी सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाका विषय बहुत ही सूक्ष्म और कहीं कहीं तो दुरूह ही है जिसके संशोधन व अनुवादादि में विशेष परिश्रम, अवधान और समयकी आवश्यकता पड़ी; और तीसरे इस बीच अनेक असाधारण विघ्न-बाधाएं उपस्थित हुई जिनके कारण इस भागके प्रकाशित होनेमें पूर्व भागोंकी अपेक्षा कुछ अधिक समय लगा। फिर भी हम इसे पाठकोंके हाथों पहुंचानेमें समर्थ हुए, इसका हमें संतोष है । जीवस्थान खंडका यह भाग चूलिकारूप है । फिर भी इसका विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें कर्मसिद्धान्तका परिपूर्ण निरूपण बड़ी उत्तमता और व्यवस्थाके साथ किया गया है जिसको संक्षेपमें समझनेके लिये प्रस्तावनाके अन्तर्गत विषय-परिचय व तत्सम्बन्धी तालिकाओंको एवं विषयसूचीको देखिये । हो सके तो फिर परिशिष्टमें दिये गये सूत्रपाठका पारायण कर जाइये । पारिभाषिक शब्दसूचीको भी देखिये जहां संभवतः आपको अनेक ऐसे शब्द दिखाई देंगे जिनका आप अर्थ समझनेके लिये उत्सुक होकर अमुक पृष्ठको उलट कर देखेंगे । इसके पश्चात् यथावकाश क्रमशः आप ग्रंथका स्वाध्याय करके उसके रसका आस्वादन तो करेंगे ही । इस भागके भीतर नौ चूलिकायें हैं-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, उत्कृष्ट स्थिति, जघन्य स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-आगति । इनमें क्रमशः ४६, ११७, २, २, २, ४४, ४३, १६ और २४३ सूत्र पाये जाते हैं। इनकी टीकामें क्रमशः शंका-समाधान आये हैं । धवलाकारने अपनी टीका द्वारा सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाको विशेष रूपसे परिपुष्ट किया है। इस भागमें यथास्थान कुल ५१५ सूत्र, २६५ शंकासमाधान, ५५ विशेषार्थ और लगभग ८५० टिप्पण पाये जावेंगे । हर्षका विषय है कि इस भागके साथ छह खंडोंमेंसे प्रथम खंड जीवस्थानकी समाप्ति हो गई। इस भागके प्रथम २८ फार्मोका संशोधन, अनुवाद व मुद्रण पं. हीरालालजी शास्त्री की सहायतासे हुआ था । उसके पश्चात् गत जनवरी मासके अन्तमें अकस्मात् उनका इस व्यवस्थासे सम्बन्ध विच्छेद होगया । अतएव शेष ग्रंथका सम्पादन पं. बालचन्द्रजी शास्त्री की सहायतासे हुआ है। शेष सब सहयोग व व्यवस्था पूर्ववत् चालू रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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