Book Title: Shastra Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 6
________________ १०० धर्म और समाज मस्तक फोड़नेको तैयार हो जाता है। एक तरफ विरोधियोंकी सेना और दूसरी तरफ़ अकेला नया आगन्तुक । विरोधी कहते हैं कि 'तू जो कहना चाहता है, जो विचार दर्शाता है, वे इन प्राचीन ईश्वरीय शास्त्रों में कहाँ हैं ? उलटे इनके शब्द तो तेरे नये विचारके विरुद्ध ही जाते है। इन श्रद्धालुओं किन्तु आँखवाले विरोधियोंको वह आगन्तुक या विचारक उन्हींके ही संकुचित शब्दोंमेंसे अपनी विचारणा और भावना फलित कर बतलाता है । इस प्रकार इस नये विचारक और स्रष्टाद्वारा एक समयके प्राचीन शब्द अर्थदृष्टिसे विकसित होते हैं और नये विचारों तथा भावनाओंका नया स्तर रचते हैं और फिर यह नया स्तर समय बीतनेपर पुराना होकर जब कि बहुत उपयोगी नहीं रहता अथवा उलटा बाधक हो जाता है तब फिर ये ही स्रष्टा तथा विचारक पहलेके स्तरपर ऐसी किसी समयकी नई किन्तु अब पुरानी हुई विचारणाओं तथा भावनाओंपर नये स्तरकी रचना करते हैं। इस प्रकार प्राचीन कालसे अनेक बार एक ही शब्दकी खोलमें अनेक विचारणाओं और भावनाओंके स्तर हमारे शास्त्रमार्गमें देखे जा सकते हैं। नवीन स्तर के प्रवाहको प्राचीन स्तरकी जगह लेनेके लिए यदि स्वतन्त्र शब्दोंका निर्माण करना पड़ा होता और अनुयायियोंका क्षेत्र भी अलग मिला होता, तो उस प्राचीन और नवीनके मध्यमें द्वंद्वकाविरोधका-अवकाश ही न रहता । परन्तु प्रकृतिका आभार मानना चाहिए कि. उसने शब्दोंका और अनुयायियोंका क्षेत्र बिलकुल ही जुदा नहीं रक्खा, जिससे पुराने लोगोंकी स्थिरता और नये आगन्तुककी दृढताके बीच विरोध उत्पन्न होता है और कालक्रमसे यह विरोध विकासका ही रूप पकड़ता है। जैन या बौद्ध मूल शास्त्रोंको लेकर विचार कीजिए या वेद शास्त्रको मान कर चलिए, यही वस्तु हमको दिखलाई पड़ेगी। मंत्र वेदके ब्रह्म, इन्द्र, वरुण, ऋत, तप, सत्, असत, यज वगैरह शब्द तथा उनके पीछेकी भावना और उपासना और उपनिपदोंमें दीखनेवाली इन्हीं शब्दोंमें आरोपित भावना तथा उपासनापर विचार करो। इतना ही नहीं किन्तु भगवान् महावीर और बुद्ध के उपदेशमें स्पष्टरूपसे व्याप्त ब्राह्मण, तप, कर्म, वर्ण वगैरह शब्दोंके पीछेकी भावना और इन्हीं शब्दोंके पीछे रही हुई वेदकालीन भावनाओंको लेकर दोनोंकी तुलना करो; फिर गीतामें स्पष्ट रूपसे दीखती हुई यज्ञ, कर्म, संन्यास, प्रवृत्ति, निवृत्ति, योग, भोग वगैरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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