Book Title: Shastra Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 13
________________ शास्त्र-मर्यादा १०७ करनेवाले शास्त्र तो उस वक्त भी थे, आज भी हैं और आगे भी रचे जायँगे। 'स्मृति' जैसे लौकिक शास्त्र लोग आज तक रचते आए हैं और आगे मी रचेंगे। देश-कालानुसार लोग अपनी भोग-मर्यादाके लिए नये नियम, नये व्यवहार, गढ़ेगे, पुरानोंमें परिवर्तन करेंगे और बहुतोंको फेंक भी देंगे । इन लौकिक स्मृतियोंकी ओर भगवानने ध्यान नहीं दिया। उनका ध्रुव सिद्धान्त त्यागका है। लौकिक नियमोंका चक्र उसके आस-पास उत्पादन-व्ययकी तरह, ध्रुव सिद्धान्तमें बाधा न पड़े, इस प्रकार चला करे, इतना ही देखना रह जाता है। इसी कारण जब जैनधर्मको कुलधर्म माननेवाला जनसमाज व्यवस्थित हुआ और फैलता गया तब उसने लौकिक नियमानुसार भोग और सामाजिक. मर्यादाका प्रतिपादन करनेवाले अनेक शास्त्र रचे । जिस न्यायने भगवान के बाद हजार वर्षांतक समाजको जिन्दा रक्खा, वही न्याय समाजको जिन्दा रखनेके लिए हाथ ऊँचा करके कहता है कि 'तू सावधान हो, अपने आसपास की उपस्थित परिस्थितिको देख और फिर समयानुसारिणी स्मृतियाँ रच ! तू इतना ही ध्यानमें रख कि त्याग ही सच्चा लक्ष्य है, परंतु साथमें यह भी न भूल. जाना कि त्यागके विना त्यागका ढोंग करेगा तो जरूर नष्ट होगा। और अपनी भोगमर्यादाके अनुकूल हो, ऐसी रीतिसे सामाजिक जीवनकी घटना कर; केवल स्त्रीत्व या पुरुषत्व के कारण एककी भोगवृत्ति अधिक है और दूसरेकी कम है अथवा एकको अपनी वृत्तियाँ तृप्त करनेका चाहे जिस रीतिसे हक़ है. और दूसरेका उसकी भोगवृत्तिके शिकार बननेका ही जन्मसिद्ध कर्तव्य है,. ऐसा कभी न मान । समाजधर्म यह भी कहता है कि सामाजिक स्मृतियाँ सदा एक जैसी नहीं होतीं। त्यागके अनन्य पक्षपाती गुरुओंने भी जनसमाजको बचानेके लिए अथवा उस वक्तकी परिस्थितिके वश होकर आश्चर्यजनक भोगमर्यादा-वाले विधान बनाये हैं । वर्तमानकी नई जैन स्मृतियोमें चौसठ हजार या छयानवे हज़ार तो क्या, एक साथ दो स्त्रियाँ रखनेवालेकी भी प्रतिष्ठा समाप्त कर दी जायगी तब ही जैनसमाज अन्य धर्मसमाजोंमें सम्मानपूर्वक मुँह दिखा सकेगा। आजकलकी नई स्मृति के प्रकरणमें एक साथ पाँच पति रखनेवाली द्रौपदीके सतीत्वकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, परन्तु प्रामाणिकरूपसे पुनर्विवाह करनेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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