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शास्त्र मर्यादा
शास्त्र क्या है ?
जो शिक्षा दे अर्थात् किसी विषयका परिचय तथा अनुभव प्रदान करे, उसे शास्त्र कहते है | परिचय और अनुभव जितने परिमाणमें गहरा और विशाल होगा उतने ही परिमाण में वह शास्त्र अधिक महत्त्वका होगा । इस प्रकार महत्वका आधार तो गहराई और विशालता है, फिर भी शास्त्रकी प्रतिष्ठाका आधार उसकी यथार्थता है । किसी शास्त्र में परिचय विशेष हो, गहनता हो, अनुभव भी विशाल हो, फिर भी उसमें यदि दृष्टि-दोष या दूसरी भ्रान्ति हो, तो उसकी अपेक्षा उसी विषयका थोड़ा भी यथार्थ परिचय देनेवाला और सत्य अनुभव प्रकट करनेवाला दूसरा शास्त्र विशेष महत्त्वका होगा और उसीकी सच्ची प्रतिष्ठा होती । ' शास्त्रमें ' ' शास् ' और ' त्र ' ये दो शब्द हैं । शास् ' शब्द परिचय और अनुभवकी पूर्तिका और त्र ' त्राणशक्तिका भाव सूचित करता है । जो कुमार्ग में जाते हुए मानवको रोक कर रक्षा करती है और उसकी शक्तिको सच्चे मार्ग में लगा देती है, वह शास्त्रकी त्राणशक्ति है । ऐसी त्राणशक्ति परिन्वय या अनुभवकी विशालता अथवा गंभीरतापर अवलम्बित नहीं, किन्तु केवल सत्यपर अवलम्बित है । इससे समुच्चय रूपसे विचार करने पर यही फलित होता है कि जो किसी भी विषय के सच्चे अनुमवकी पूर्ति करता है, वही ' शास्त्र ' कहा जाना चाहिए ।
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ऐसा शास्त्र कौन ?
उपर्युक्त व्याख्यानुसार तो किसीको शास्त्र कहना ही कठिन है । क्योंकि आज तककी दुनियामें ऐसा कोई शास्त्र नहीं बना जिसमें वर्णित परिचय और अनुभव किसी भी प्रकार के परिवर्तनके पाने योग्य न हो, या जिसके विरुद्ध
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धर्म और समाज
किसीको कभी कुछ कहनेका प्रसंग ही न आया हो । तब प्रश्न होता है कि ऊपरकी व्याख्यानुसार जिसे शास्त्र कह सकें, ऐसा कोई शास्त्र है भी या नहीं ? उत्तर सरल भी है और कठिन भी। यदि उत्तरके पीछे रहे हुए विचारमें बंधन, भय या लालच न हो, तो सरल है, और यदि वे हो तो कठिन है। मनुष्यका स्वभाव जिज्ञासु भी है और श्रद्धालु भी । जिज्ञासा मनुष्यको विशालतामें ले जाती है और श्रद्धा दृढता प्रदान करती है । जिज्ञासा और श्रद्धाके साथ यदि दूसरी कोई आसुरी वृत्ति मिल जाय, तो वह मनुष्यको मर्यादित क्षेत्रमें बाँध रखकर उसी में सत्य, नहीं-नहीं, पूर्ण सत्य, देखनेको बाधित करती है। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य किसी एक ही वाक्यको, या किसी एक ही ग्रंथको अथवा किसी एक ही परम्पराके ग्रन्थसमूहको अंतिम शास्त्र मान बैठता है और उसीमें पूर्ण सत्य मान लेता है। ऐसा होनेसे मनुष्य मनुष्यमें, समूह समूहमें और सम्प्रदाय सम्प्रदायमें शास्त्रकी सत्यता-असत्यताके विषयमें अथवा शास्त्रकी श्रेष्ठताके तरतम भावके विषयमें झगड़ा शुरू हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य स्वयं माने हुए शास्त्रके अतिरिक्त दूसरे शास्त्रोंको मिथ्या या अपूर्ण सत्य प्रकट करनेवाले कहने लग जाता है और ऐसा करके वह अपने प्रतिस्पर्धीको अपने शास्त्रके विषयमें वैसा ही कहनेके लिए जाने अनजाने निमन्त्रण देता है । इस तूफानी वातावरणमें और संकीर्ण मनोवृत्तिमें यह विचारना बाकी रह जाता है कि तब क्या सभी शास्त्र मिथ्या या सभी शास्त्र सत्य या सभी कुछ नहीं हैं ?
यह तो हुई उत्तर देनेकी कठिनाईकी बात । परंतु जब हम भय, लालच और संकुचितताके बन्धनकारक वातावरणमेंसे छूटकर विचारते है, तब उक्त प्रश्नका निटबारा सुगम हो जाता है और वह इस तरह कि सत्य एक और अखंड होते हुए भी उसका आविर्भाव ( उसका भान ) कालक्रमसे और प्रकारभेदसे होता है। सत्यका भान यदि कालक्रम विना और प्रकारभेद विना हो सकता, तो आजसे बहुत पहले कभीका यह सत्यशोधका काम पूर्ण हो जाता और इस दिशामें किसीको कुछ कहना या करना शायद ही रहा होता । सत्यका आविर्भाव करनेवाले जो जो महापुरुष पृथ्वी-तलपर हुए हैं उनको उनके पहलेके सत्यशोधकोंकी शोधकी विरासत मिली थी। ऐसा कोई भी महापुरुष क्या तुम बता सकोगे
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शाल-मर्यादा
जिसको अपनी सत्यकी शोधमै और सत्यके आविर्भावमें अपने पूर्ववर्ती और समसमयक्ती दूसरे शोधकोंकी शोधकी थोड़ी बहुत विरासत न मिली हो और केवल उसने ही एकाएक अपूर्वरूपसे वह सत्य प्रकट किया हो ? हम जरा भी विचार करेंगे तो मालूम पड़ेगा कि कोई भी सत्यशोधक अथवा शास्त्रप्रणेता अपनेको मिली हुई विरासतकी भूमिकापर ही खड़ा होकर अपनी दृष्टिक अनुसार या अपनी परिस्थितिके अनुसार सत्यका आविर्भाव करने में प्रवृत्त होता है और वैसा करके सत्यके आविर्भावको विकसित करता है। यह विचारसरणी यदि त्याज्य न हो, तो कहना चाहिए कि प्रत्येक शास्त्र, उस विषयमें जिन्होंने शोध की, जो शोध कर रहे हैं या जो शोध करनेवाले हैं, उन व्यक्तियोंकी क्रमिक तथा प्रकारभेदवाली प्रतीतियोंका संयोजन है। प्रतीतियाँ जिन संयोगों में क्रमसे उत्पन्न हुई हों उन्हें संयोगोंके अनुसार उसी क्रमसे संकलित कर लिया जाय तो उस विषयका पूर्ण अखण्ड-शास्त्र बन जाय और इन सभी कालिक प्रतीतियों या आविभावों से अलग अलग खण्ड ले लिये जायें, तो वह अखण्ड शास्त्र भले ही न कहलाए फिर भी उसे शास्त्र कहना हो तो इसी अर्थमें कहना चाहिए कि वह प्रतीतिका एक खण्ड भी एक अखण्ड शास्त्रका अंश है। परन्तु ऐसे किसी अंशको यदि सम्पूर्णताका नाम दिया जाय, तो वह मिथ्या है। यदि इस बातमें कुछ आपत्ति न हो (मैं तो कोई आपत्ति नहीं देखता ) तो हमें शुद्ध हृदयसे स्वीकार करना चाहिए कि केवल वेद, केवल उपनिषत्, जैनागम, बौद्ध पिटक, अवेस्ता, बाइबिल, पुराण, कुरान, या तत्तत् स्मृतियाँ, ये अपने अपने विषयसम्बन्धमें अकेले ही सम्पूर्ण और अन्तिम शास्त्र नहीं हैं। ये सब आध्यात्मिक, भौतिक अथवा सामाजिक विषयसम्बन्धी एक अखण्ड त्रैकालिक शास्त्रके क्रमिक तथा प्रकारभेदवाले सत्यके आविर्भावके सूचक हैं अथवा उस अखंड सत्यके देशकाल तथा प्रकृतिभेदानुसार भिन्न भिन्न पक्षोंको प्रस्तुत करनेवाले खण्ड-शास्त्र हैं। यह बात किसी भी विषयके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अभ्यासीके लिए समझ लेना बिलकुल सरल है। यदि यह बात हमारे हृदयमें उतर जाय और उतारनेकी ज़रूरत तो है ही, तो हम अपनी बातको पकड़े रहते हुए भी दूसरोंके प्रति अन्याय करनेसे बच जाएँगे और ऐसा करके दूसरेको भी अन्यायमें उतारनेकी परि
स्थतिसे बचा लेंगे। अपने माने हुए सत्यके प्रति वफादार रहनेके लिए यह Jain Educatido International
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धर्म और समाज
ज़रूरी है कि उसकी जितनी कीमत हो उससे अधिक आँक करके अंधश्रद्धा विकसित न की जाय और कमती आँककर नास्तिकता न प्रकट की जाय । ऐसा किया जाय तो यह मालूम हुए विना न रहेगा कि अमुक विषयसंबंधी मंथन क्यों तो शास्त्र है, क्यों अशास्त्र है और क्यों कुछ नहीं ।
देश, काल और संयोगसे परिमित सत्यके आविर्भावकी दृष्टिसे ये सब ही शास्त्र हैं, सत्यके सम्पूर्ण और निरपेक्ष आविर्भावकी दृष्टिसे अशास्त्र हैं और शास्त्रयोगके पार पहुँचे हुए समर्थ योगीकी दृष्टिसे शास्त्र या अशास्त्र कुछ भी नहीं । स्वाभिमत साम्प्रदायिक शास्त्रके विषयमें पुष्ट मिथ्या अभिमानको गलानेके लिए इतनी ही समझ काफी है। यदि यह मिथ्या अभिमान गल जाय, तो मोहका बन्धन दूर होते ही सभी महान् पुरुषोंके खण्ड-सत्योंमें अखण्ड सत्यका दर्शन हो जाय और सभी विचारसरणियोंकी नदियाँ अपने अपने ढंगसे एक ही महासत्यके समुद्र में मिलती हैं, ऐसी स्पष्ट प्रतीति हो जाय । यह प्रतीति कराना ही शास्त्र-रचनाका प्रधान उद्देश्य है ।
सर्जक और रक्षक शास्त्रके सर्जक अन्य होते हैं, उनकी रक्षा अन्य करते हैं और अन्य कुछ मनुष्योंके द्वारा उनकी सँभालके अतिरिक्त उनमें वृद्धि की जाती है। रक्षकों, संशोधकों और परिशिष्टकारों ( पूर्तिकारों) की अपेक्षा सर्जक ( रचयिता) हमेशा कम होते हैं। सर्जकोंमें भी सब समान कोटिके होते हैं, यह समझना मनुष्यप्रकृतिका अज्ञान है । रक्षकोंके मुख्य दो भाग होते हैं । एक भाग सर्जककी कृतिके प्रति आजन्म वफादार रहकर उसका आशय समझनेकी, उसे स्पष्ट करनेकी और उसका प्रचार करनेकी कोशिश करता है । वह इतना अधिक भक्तिसम्पन्न होता है कि उसे अपने पूर्वीय स्रष्टाके अनुभवमें कुछ भी सुधार या परिवर्तन करना योग्य नहीं लगता। इससे वह अपने पूज्य स्रष्टाके वाक्योंको अक्षरशः पकड़े रहकर उनमेंसे ही सब कुछ फलित करनेका प्रयत्न करता है और संसारकी तरफ़ देखनेकी दूसरी आँख बन्द कर लेता है। दूसरा भाग भक्तिसम्पन्न होनेके अतिरिक्त दृष्टिसम्पन्न भी होता है। इससे वह अपने पूज्य स्रष्टाकी कृतिका अनुसरण करते हुए भी उसे अक्षरशः नहीं पकड़े रहता, उलटा वह उसमें जो जो त्रुटियाँ देखता है
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शास्त्र-मर्यादा
अथवा परिपूर्ति की आवश्यकता समझता है उसे अपनी शक्त्यनुसार दूर करके या पूर्ण करके प्रचार करता है । इस प्रकारसे रक्षकोंके पहले भागके द्वारा शास्त्रका प्रमार्जन तथा पूर्ति तो नहीं होती फिर भी एकदेशीय गहराई उनमें आती है और रक्षकों के द्वितीयभाग-द्वारा शास्त्रका प्रमार्जन तथा पूर्ति होनेके कारण वे विशालताको प्राप्त होते हैं। किसी भी स्रष्टाके शास्त्र-साहित्यके इतिहासका अध्ययन किया जायगा तो ऊपरकी बातपर विश्वास हुए विना नहीं रहेगा । उदाहरणके तौर पर आर्य ऋषियोंके अमुक वेदभागको मूल रचना मानकर प्रस्तुत वस्तु समझानी हो, तो ऐसा कहा जा सकता है कि मंत्रवेदका ब्राह्मण भाग और जमिनीयकी मीमांसा ये प्रथम प्रकारके रक्षक हैं
और उपनिषद् , जैन आगम, बौद्ध पिटक, गीता, स्मृति और अन्य ऐसे ही अन्य द्वितीय प्रकारके रक्षक हैं: क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों और पूर्वमीमांसाको मंत्रवेदमें चली आनेवाली भावनाओंकी व्यवस्था करनी है-उसके प्रामाण्यको अधिक मजबूत कर उसपर श्रद्धाको दृढ़ करना है। किसी भी तरह मंत्रवेदका प्रामाण्य दृढ़ रहे, यही एक चिन्ता ब्राह्मणकारों और मीमांसकोंकी है । उन कट्टर रक्षकोंको मंत्रवेदमें वृद्धि करने योग्य कुछ भी नज़र नहीं आता, उलटा वृद्धि करनेका विचार ही उन्हें घबरा देता है । जब कि उपनिषत्कार, आगमकार, पिटककार वगैरह मंत्रवेदमेंसे मिली हुई विरासतको प्रमार्जन करने योग्य, वृद्धि करने योग्य और विकास करने योग्य समझते हैं । ऐसी स्थितिमें एक ही विरासतको प्राप्त करनेवाले भिन्न भिन्न समयोंके और समान 'समयके प्रकृतिभेदवाले मनुष्योंमें पक्षापक्षी और किलेबन्दी खड़ी हो जाती है।
नवीन और प्राचीनमें द्वन्द्व उक्त किलेबन्दीमैसे सम्प्रदायका जन्म होता है और एक दूसरेके बीच विचार-संघर्ष गहरा हो जाता है । देखनेमें यह संघर्ष अनर्थकारी लगता है, परन्तु इसके परिणामस्वरूप ही सत्यका आविर्भाव आगे बढ़ता है। पुष्ट विचारक या समर्थ स्रष्टा इसी संघर्ष से जन्म लेता है और वह चले आते हुए शास्त्रीय सत्योंमें और शास्त्रीय भावनाओंमें नया कदम बढ़ाता है। यह नया कदम पहले तो लोगोंको चौंका देता है और उनका बहुभाग रूढ और श्रद्धास्पद शब्दों तथा भावनाओंके हथियारद्वारा इस नये विचारक या सर्जकका
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धर्म और समाज
मस्तक फोड़नेको तैयार हो जाता है। एक तरफ विरोधियोंकी सेना और दूसरी तरफ़ अकेला नया आगन्तुक । विरोधी कहते हैं कि 'तू जो कहना चाहता है, जो विचार दर्शाता है, वे इन प्राचीन ईश्वरीय शास्त्रों में कहाँ हैं ? उलटे इनके शब्द तो तेरे नये विचारके विरुद्ध ही जाते है। इन श्रद्धालुओं किन्तु आँखवाले विरोधियोंको वह आगन्तुक या विचारक उन्हींके ही संकुचित शब्दोंमेंसे अपनी विचारणा और भावना फलित कर बतलाता है । इस प्रकार इस नये विचारक और स्रष्टाद्वारा एक समयके प्राचीन शब्द अर्थदृष्टिसे विकसित होते हैं और नये विचारों तथा भावनाओंका नया स्तर रचते हैं और फिर यह नया स्तर समय बीतनेपर पुराना होकर जब कि बहुत उपयोगी नहीं रहता अथवा उलटा बाधक हो जाता है तब फिर ये ही स्रष्टा तथा विचारक पहलेके स्तरपर ऐसी किसी समयकी नई किन्तु अब पुरानी हुई विचारणाओं तथा भावनाओंपर नये स्तरकी रचना करते हैं। इस प्रकार प्राचीन कालसे अनेक बार एक ही शब्दकी खोलमें अनेक विचारणाओं और भावनाओंके स्तर हमारे शास्त्रमार्गमें देखे जा सकते हैं। नवीन स्तर के प्रवाहको प्राचीन स्तरकी जगह लेनेके लिए यदि स्वतन्त्र शब्दोंका निर्माण करना पड़ा होता और अनुयायियोंका क्षेत्र भी अलग मिला होता, तो उस प्राचीन और नवीनके मध्यमें द्वंद्वकाविरोधका-अवकाश ही न रहता । परन्तु प्रकृतिका आभार मानना चाहिए कि. उसने शब्दोंका और अनुयायियोंका क्षेत्र बिलकुल ही जुदा नहीं रक्खा, जिससे पुराने लोगोंकी स्थिरता और नये आगन्तुककी दृढताके बीच विरोध उत्पन्न होता है और कालक्रमसे यह विरोध विकासका ही रूप पकड़ता है। जैन या बौद्ध मूल शास्त्रोंको लेकर विचार कीजिए या वेद शास्त्रको मान कर चलिए, यही वस्तु हमको दिखलाई पड़ेगी। मंत्र वेदके ब्रह्म, इन्द्र, वरुण, ऋत, तप, सत्, असत, यज वगैरह शब्द तथा उनके पीछेकी भावना और उपासना और उपनिपदोंमें दीखनेवाली इन्हीं शब्दोंमें आरोपित भावना तथा उपासनापर विचार करो। इतना ही नहीं किन्तु भगवान् महावीर और बुद्ध के उपदेशमें स्पष्टरूपसे व्याप्त ब्राह्मण, तप, कर्म, वर्ण वगैरह शब्दोंके पीछेकी भावना और इन्हीं शब्दोंके पीछे रही हुई वेदकालीन भावनाओंको लेकर दोनोंकी तुलना करो; फिर गीतामें स्पष्ट रूपसे दीखती हुई यज्ञ, कर्म, संन्यास, प्रवृत्ति, निवृत्ति, योग, भोग वगैरह
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शास्त्र-मर्यादा
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शब्दोंके पीछे रही हुई भावनाओंको वेदकालीन और उपनिषत्कालीन इन्हीं शब्दोंपर आरोपित भावनाओंके साथ तुलना करो, तो पिछले पाँच हज़ार वर्षोंमें आर्य लोगोंके मानसमें कितना परिवर्तन हुआ है यह स्पष्ट मालूम हो जायगा । यह परिवर्तन कुछ एकाएक नहीं हुआ, या विना बाधा और विना विरोधके विकासक्रममें इसे स्थान नहीं मिला बल्कि इस परिवर्तनके होनेमें जैसे समय लगा है वैसे इन स्तरोंको स्थान प्राप्त करने में भी बहुत टक्कर सहनी पड़ी है। नये विचारक और सर्जक अपनी भावनाके हथोड़ेसे प्राचीन शब्दोंकी एरण (निहाई) पर रूढ लोगोंके मानसको नया रूप देते हैं। हथोड़ा और एरणके बीच में मानसकी धातु देशकालानुसार परिवर्तित भावनाओंके और विचारणाओंके नये नये रूप धारण करती है; और नवीन-प्राचीनकी काल-चक्कीके पाट नया नया यीसते जाते हैं और मनुष्यजातिको जीवित रखते हैं ।
वर्तमान युग इस युगमें बहुत-सी भावनाएँ और विचारणाएँ नये ही रूपमें हमारे सामने आती हैं। राजकीय या सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र तकमें स्वरासे नवीन भावनाएँ प्रकाशमें आ रही हैं। एक ओर भावनाओंको विचारकी कसौटीपर चढ़ाये विना स्वीकार करनेवाला मन्दबुद्धि वर्ग होता है,
और दूसरी ओर इन भावनाओंको विना विचारे फेंक देने या खोटी कहनेवाला जरठबुद्धि वर्ग भी कोई छोटा या नगण्य नहीं होता । इन संयोगोंमें क्या होना चाहिए और क्या हुआ है, यह समझानेके लिए ऊपर चार बातोंकी चचों की गई हैं। सर्जक और रक्षक मनुष्य जातिके नैसर्गिक फल हैं। इनके अस्तित्वको प्रकृति भी नहीं मिटा सकती। नवीन-प्राचीनका द्वंद्व सत्यके आविर्भावका
और उसे टिका रखनेका अनिवार्य अंग है । अतः इससे भी सत्यप्रिय घबड़ाता नहीं। शास्त्र क्या और कौन, इन दो विशेष बातोंकी दृष्टिके विकासके लिए, अथवा नवीन और प्राचीनकी टक्करके दधि-मंथनमेंसे अपने आप ऊपर आ जानेवाले मक्खनको पहचाननेकी शक्ति विकसित करनेके लिए यह चर्चा की गई हैं । ये चार खास बातें तो वर्तमान युगकी विचारणाओं और भावनाओंको समझने के लिए केवल प्रस्तावना हैं । अब संक्षेपसे जैन समाजको लेकर सोचिए कि उसके सामने आज कौन कौन राजकीय, सामाजिक और आध्यात्मिक
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धर्म और समाज
समस्याएँ, खड़ी हैं - और उनका समाधान शक्य है या नहीं ? और शक्य है तो किस प्रकार !
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१ जो केवल कुलपरम्परासे जैन है उसके लिए नहीं किन्तु जिसमें थोड़ा बहुत जैनत्व भी है उसके लिए सीधा प्रश्न यह है कि वह राष्ट्रीय क्षेत्र और राजनीति में भाग ले या नहीं और ले तो किस रीतिसे ? क्योंकि उस मनुष्य के मन में होता है कि राष्ट्र और राजनीति तो स्वार्थ तथा संकुचित भावनाका फल है और सच्चा जैनत्व इससे परेकी वस्तु है । अर्थात् जो गुणसे जैन हो वह राष्ट्रीय कार्य और राजकीय आन्दोलनमें पड़े या नहीं ?
२ विवाहसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रथाओं और उद्योग-धंधोंके पीछे रही हुई मान्यताओं तथा स्त्री-पुरुषजातिके बीच के सम्बन्धोंके विषय में आज कल जो विचार बलपूर्वक उदित हो रहे हैं और चारों तरफ फैल रहे हैं उनको जैन शास्त्रका आधार है या नहीं, अथवा सच्चे जैनत्वके साथ इन नये विचारोंका मेल हैं या नहीं, या प्राचीन विचारोंके साथ ही सच्चे जैनत्वका सम्बन्ध है ? यदि नये विचारोंको शास्त्रका आधार न हो और उन विचारोंके विना जीना समाज के लिए अशक्य दिखलाई देता हो, तो क्या करना चाहिए ? क्या इन विचारोंको प्राचीन शास्त्ररूपी बूढ़ी गायके स्तनोंमेंसे ही जैसे तैसे दुहना होगा या इन विचारोंका नया शास्त्र रचकर जैनशास्त्रका विकास करना होगा ? अथवा इन विचारोंको स्वीकार करनेकी अपेक्षा जैनसमाजके अस्तित्व के नाशको निमंत्रण देना होगा ?
३ मोक्षके पन्थपर प्रस्थित गुरुसंस्था सम्यक्प्रकार गुरु अर्थात् मार्गदर्शक होनेके बदले यदि गुरु - बोझ रूप होती हो, और सुभूमचक्रवर्त्तीकी पालकीकी तरह उसे उठानेवाले श्रावकरूप देवोंके भी डूबनेकी दशाको पहुँच गईं हो, तो क्या देवोंको पालकी फेंककर खिसक जाना चाहिए या पालकीके साथ डूब जाना चाहिए ? अथवा पालकी और अपनेको ले चले ऐसा कोई मार्ग खोज लेना चाहिए ? यदि ऐसा मार्ग न सूझे तो फिर क्या करना चाहिए ? और यदि सूझ जाय तो वह प्राचीन जैन शास्त्रमें है या नहीं और आज तक किसीके द्वारा अवलम्बित हुआ है या नहीं, यह देखना चाहिए ?
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शास्त्र-मर्यादा
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४ कौन कौन धंधे जैवत्वके साथ ठीक बैठते हैं और कौन कौन जैनत्वके घातक हैं ? क्या खेतीबाड़ी, लुहारी, सुतारी ( बढ़ईगीरी) और चमड़ेसम्बंधी काम, अनाजका व्यापार, जहाजरानी, सिपहगीरी, यन्त्रोंका काम वगैरह जैनत्वके बाधक हैं और जवाहिरात, बजाजी, दलाली, सट्टा, मिलमालिकी, व्याज-बट्टा आदि जैनत्वके बाधक नहीं हैं या कम बाधक हैं ? __ ऊपर दिये हुए चार प्रश्न तो इस तरहके और अनेक प्रश्नोंकी बानगी भर हैं । इसलिए इनका जो उत्तर होगा वह यदि तर्क और विचारशुद्ध हुआ, तो दूसरे प्रश्नोंरर भी सुगमतासे लागू हो सकेगा। ये प्रश्न आज ही खड़े नहीं हुए हैं । कम-ज्यादा प्रमाणमें और एक अथवा दूसरे रूपमें हमारे जैनशास्त्रोंके इतिहासमें ये अवश्य मिल सकते हैं । जहाँ तक मैं समझता हूँ ऐसे प्रश्न उत्पन्न होनेका और उनका समाधान न मिलनेका मुख्य कारण जैनत्व और उसके विकास-क्रमके इतिहासका हमारा अज्ञान है ।
जीवनमें सच्चे जैनत्वका कुछ भी तेज न हो, केवल परम्परागत वेश, भाषा और तिलक चन्दनका जैनत्व ही जाने अनजाने जीवनपर लद गया हो और अधिकांशमें वस्तुस्थिति समझने जितनी बुद्धिशक्ति भी न हो, तो उक्त प्रश्नोंका समाधान नहीं होता । और यदि जीवनमें थोड़ा बहुत सच्चा जैनत्व तो उद्भूत हुआ हो, पर विरासतमें मिले प्रस्तुत क्षेत्रके अतिरिक्त दूसरे विशाल और नये नये क्षेत्रोंमें खड़ी होनेवाली समस्याओंको सुलझाने तथा वास्तविक जैनत्वकी चाबीसे उलझनोंके तालोंको खोलनेकी प्रज्ञा न हो, तो भी इन प्रश्नोंका समाधान नहीं होता । इससे आवश्यकता इस बातकी है कि सच्चा जैनत्व क्या है, इसे समझ कर जीवनमें उतारने और सभी क्षेत्रों में खड़ी होनेवाली कठिनाइयोंको हल करनेके लिए जैनत्वका किस किस रीतिसे उपयोग किया जाय, इसका ज्ञान बढ़ाया जाय ।
समभाव और सत्यदृष्टि अब हमें देखना चाहिए कि सच्चा जैनत्व क्या है और उसके ज्ञान तथा प्रयोगद्वारा ऊपरके प्रश्नोंका अविरोधी समाधान किस रीतिसे हो सकता है। सच्चा जैनत्व है समभाव और सत्यदृष्टि, जिनका जैनशास्त्र क्रमशः अहिंसा तथा अनेकान्तदृष्टिके नामसे परिचय देते हैं । अहिंसा और अनेकान्तदृष्टि ये
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धर्म और समाज
दोनों आध्यात्मिक जीवनके दो पंख, अथवा दो प्राणपद फेफड़े हैं । एक आचारको उज्ज्वल करता है और दूसरा दृष्टिको शुद्ध और विशाल बनाता है। इसी बातको दूसरी रीतिसे कहना हो तो कहिए कि जीवनकी तृष्णाका अभाव और एकदेशीय दृष्टिका अभाव ही सच्चा जैनत्व है । सच्चा जैनत्व और जैनसमाज इन दोके बीच जमीन आसमानका अन्तर है। जिन्होंने सच्चा जैनत्व पूर्णरूपसे अथवा थोड़े-बहुत प्रमाणमें साधा है, उन लोगोंका समाज या तो बंधता ही नहीं और यदि बँधता है तो उसका मार्ग ऐसा निराला होता है कि उसमें झंझटें खड़ी ही नहीं होती और होती हैं तो उनका शीघ्र ही निराकरण हो जाता है।
जैनत्वको साधनेवाले और सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी करनेवाले जो इने गिने लोग प्रत्येक कालमें होते रहते हैं वे तो जैन हैं। और ऐसे जैनोंके शिष्य या पुत्र जिनमें सच्चे जैनत्वकी उम्मीदवारी तो होती नहीं किन्तु सच्चे जैनत्वके साधकों और उम्मीदवारों के रीतिरिवाज या स्थूलमर्यादाएँ ही होती हैं वे सब जैनसमाजके अंग हैं। गुण-जैनोंका व्यवहार आन्तरिक विकासके अनुसार होता है, उनके व्यवहार और आन्तरिक विकासके बीच विसंवाद नहीं होता; जब कि सामाजिक जैनोंका इससे उलटा होता है । उनका बाह्य व्यवहार तो गुण-जैनोंकी व्यवहार-विरासतके अनुसार होता है परन्तु आन्तरिक विकासका अंश नहीं होता-वे तो जगतके दूसरे मनुष्योंके समान ही भोगतृष्णावाले तथा संकीर्णदृष्टिवाले होते हैं। एक तरफ़ आन्तरिक जीवनका विकास जरा भी न हो और दूसरी तरफ़ वैसी विकासवाली व्यक्तियों में पाये जानेवाले आचरणोंकी नकल हो, तब यह नकल विसंवादका रूप धारण करती है तथा पद-पदपर कठिनाइयाँ खड़ी करती है । गुण-जैनत्वकी साधनाके लिए भगवान महावीर या उनके सच्चे शिष्योंने वनवास स्वीकार किया, नमत्व धारण किया, गुफायें पसंद की, घर तथा परिवारका त्याग किया, धन-सम्पत्तिकी तरफ़ बेपर्वाही दिखलाई । ये सब बातें आन्तरिक विकासमेसे उत्पन्न होनेके कारण जरा भी विरुद्ध नहीं मालूम होतीं । परन्तु गले तक भोगतृष्णामें डूबे हुए, सन्चे जैनत्वकी साधनाके लिए जरा भी सहनशीलता न रखनेवाले और उदारदृष्टि रहित मनुष्य जब घर-बार छोड़कर जंगलकी
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शास्त्र-मर्यादा
ओर दौड़ पड़ते हैं, गुफावास स्वीकार करते हैं, मा-बाप या आश्रितोंकी जवाबदारी फेंक देते हैं, तब उनका जीवन विसंवादी हो जाता है और बदलते हुए नये संयोगोंके साथ नया जीवन घड़नेकी अशक्तिके कारण उनके जीवनमें विरोध मालूम पड़ता है।
राष्ट्रीय क्षेत्र और राज-काजमें जैनोंके भाग लेने न लेनेके सम्बन्धमें . जानना चाहिए कि जैनत्व त्यागी और गृहस्थ ऐसे दो वर्गामें विभाजित है । गृहस्थ जैनत्व यदि राजकर्ताओं, राज्यके मन्त्रियों, सेनाधिपतियों वगैरह अधिकारियों में, स्वयं भगवान महावीरके समयमै ही प्रकट हुआ था और उसके बाद २३०० वर्षों तक राजाओं तथा राज्यके मुख्य कर्मचारियोंमें जैनत्वके प्रकट करनेका अथवा चले आते हुए जैनत्वको स्थिर रखनेका प्रयत्न जैनाचार्योंने किया था, तो फिर आज राष्ट्रीयता और जैनत्वक बीच विरोध किस लिए दिखाई देता है ? क्या वे पुराने जमानेके राजा, राजकर्मचारी
और उनकी राजनीति सब कुछ मनुष्यातीत या लोकोत्तर भूमिकी था ? क्या उसमें कूटनीति, प्रपंच, या वासनाओंको जरा भी स्थान नहीं था या उस वक्तकी भावना और परिस्थितिके अनुसार राष्ट्रीय अस्मिता जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं ? क्या उस वक्तके राज्यकर्ता केवल वीतराग दृष्टिसे और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावनासे राज्य करते थे ? यदि इन सब प्रश्नोंका उत्तर यह हो कि जैसे साधारण गृहस्थ जैनत्व धारण करनेके साथ अपने साधारण गृहव्यवहार चला सकता है, वैसे ही प्रतिष्ठित तथा वैभवशाली गृहस्थ मी जैनत्वके साथ अपनी प्रतिष्ठाको सँभाल सकता है और इसी न्यायसे राजा तथा राजकर्मचारी भी अपने कार्यक्षेत्रमें रहते हुए सच्चे जैनत्वकी रक्षा कर सकते हैं, तो आजकी राजनीतिकी समस्याका उत्तर भी यही है । अर्थात् राष्ट्रीयता और राजनीतिके साथ सच्चे जैनत्वका, यदि वह हृदयमें प्रकट हुआ हो तो, कुछ भी विरोध नहीं। निःसन्देह यहाँ त्यागीवर्गकी बात विचारनी रह जाती है। त्यागीवर्गका राष्ट्रीय क्षेत्र और राजनीतिके साथ सम्बंध घटित नहीं हो सकता, यह कल्पना उत्पन्न होनेका कारण यह मान्यता है कि राष्ट्रीय प्रवृत्ति शुद्धि जैसा तत्व ही नहीं होता और राजनीति भी समभाव-वाली नहीं हो सकती। परन्तु अनुभव बतलाता है कि यथार्थ वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। यदि प्रवृत्ति करनेवाला स्वयं शुद्ध है तो वह प्रत्येक जगह शुद्धि ला सकता और
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धर्म और समाज
सुरक्षित रख सकता है और यदि वह स्वयं शुद्ध न हो तो त्यागीवर्गमें रहते हुए भी सदा भलिनता और भ्रमणामें पड़ा रहता है। क्या हम त्यागी माने जाने वाले जैनोंको छल प्रपंच और अशुद्धि में लिपटा हुआ नहीं देखते ? यदि राष्ट्रीय वृत्तिकी ओरसे तटस्थ त्यागीवर्गमें एकाध सच्चा जैन मिलनेका संभव हो, तो आधुनिक राष्ट्रीय प्रवृत्ति और राजकीय क्षेत्रमें कूदने वाले वर्गमें उससे भी अधिक श्रेष्ठ गुण-जैनत्वको धारण करनेवाले अनेक लोग क्या नहीं मिलते जो जन्मसे भी जैन हैं ? फिर त्यागी माने जानेवाले जैनवर्गमें राष्ट्रीयता और राजकीय क्षेत्रमें समयोचित भाग लेनेके उदाहरण साधुसंघके इतिहासमें क्या कम हैं ? फर्क है तो इतना ही कि उस समय राष्ट्रीय वृत्तिमें साम्प्रदायिक और नैतिक भावनायें साथ साथ काम करती थीं: जब कि आज साम्प्रदायिक भावना जरा भी कार्यसाधक या उपयोगी नहीं हो सकती । इससे यदि नैतिक भावना और अर्पणवृत्ति हृदय में हो, जिसका शुद्ध जैनत्वके साथ संपूर्ण मेल है, तो गृहस्थ या त्यागी किसी भी जैनको, जैनत्वमें जरा भी बाधा न आए बल्कि अधिक पोषण मिले इस रीतिसे, काम करनेका राष्ट्रीय तथा राजकीय क्षेत्रमें पूर्ण अवकाश है। घर और व्यापारके क्षेत्रकी अपेक्षा राष्ट्र और राजकीय क्षेत्र बड़ा है, यह बात ठीक; परन्तु विश्वके साथ अपना मेल होनेका दावा करनेवाले जैनधर्मके लिए तो राष्ट्र और राजकीय क्षेत्र भी घर-जैसा ही छोटा-सा क्षेत्र है। बल्कि आज तो इस क्षेत्रमें ऐसे कार्य शामिल हो गये हैं जिनका अधिकसे अधिक मेल जैनत्व, समभाव और सत्यदृष्टिके ही साथ है। मुख्य बात यह है कि किसी कार्य अथवा क्षेत्रके साथ जैनत्वका तादात्म्य संबंध नहीं । कार्य और क्षेत्र चाहे जो हो यदि जैनत्वकी दृष्टि रखकर उसमें प्रवृत्ति होगी तो वह सब शुद्ध ही होगा।
दुसरा प्रश्न विवाह-प्रथा और जात-पातका है। इस विषयमें जानना चाहिए कि जैनत्वका प्रस्थान एकान्त त्यागवृत्ति से हुआ है । भगवान महावीरको जो कुछ अपनी साधनाके फलस्वरूप जान पड़ा था वह तो ऐकान्तिक त्याग था; परन्तु सभी त्यागके इच्छुक एकाएक उस भूमिकापर नहीं पहुँच सकते। भगवान् इस लोकमानससे अनभिज्ञ न थे, इसीलिए वे उम्मीदवार के कम या अधिक त्यागमें सम्मत होकर ‘मा पडिबंधं कुणह '--'विलम्ब मत कर' कह कर सम्मत होते गये। और शेष भोगवृत्ति तथा सामाजिक मर्यादाओंका नियमन
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शास्त्र-मर्यादा
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करनेवाले शास्त्र तो उस वक्त भी थे, आज भी हैं और आगे भी रचे जायँगे। 'स्मृति' जैसे लौकिक शास्त्र लोग आज तक रचते आए हैं और आगे मी रचेंगे। देश-कालानुसार लोग अपनी भोग-मर्यादाके लिए नये नियम, नये व्यवहार, गढ़ेगे, पुरानोंमें परिवर्तन करेंगे और बहुतोंको फेंक भी देंगे । इन लौकिक स्मृतियोंकी ओर भगवानने ध्यान नहीं दिया। उनका ध्रुव सिद्धान्त त्यागका है। लौकिक नियमोंका चक्र उसके आस-पास उत्पादन-व्ययकी तरह, ध्रुव सिद्धान्तमें बाधा न पड़े, इस प्रकार चला करे, इतना ही देखना रह जाता है। इसी कारण जब जैनधर्मको कुलधर्म माननेवाला जनसमाज व्यवस्थित हुआ और फैलता गया तब उसने लौकिक नियमानुसार भोग और सामाजिक. मर्यादाका प्रतिपादन करनेवाले अनेक शास्त्र रचे । जिस न्यायने भगवान के बाद हजार वर्षांतक समाजको जिन्दा रक्खा, वही न्याय समाजको जिन्दा रखनेके लिए हाथ ऊँचा करके कहता है कि 'तू सावधान हो, अपने आसपास की उपस्थित परिस्थितिको देख और फिर समयानुसारिणी स्मृतियाँ रच ! तू इतना ही ध्यानमें रख कि त्याग ही सच्चा लक्ष्य है, परंतु साथमें यह भी न भूल. जाना कि त्यागके विना त्यागका ढोंग करेगा तो जरूर नष्ट होगा। और अपनी भोगमर्यादाके अनुकूल हो, ऐसी रीतिसे सामाजिक जीवनकी घटना कर; केवल स्त्रीत्व या पुरुषत्व के कारण एककी भोगवृत्ति अधिक है और दूसरेकी कम है अथवा एकको अपनी वृत्तियाँ तृप्त करनेका चाहे जिस रीतिसे हक़ है.
और दूसरेका उसकी भोगवृत्तिके शिकार बननेका ही जन्मसिद्ध कर्तव्य है,. ऐसा कभी न मान ।
समाजधर्म यह भी कहता है कि सामाजिक स्मृतियाँ सदा एक जैसी नहीं होतीं। त्यागके अनन्य पक्षपाती गुरुओंने भी जनसमाजको बचानेके लिए अथवा उस वक्तकी परिस्थितिके वश होकर आश्चर्यजनक भोगमर्यादा-वाले विधान बनाये हैं । वर्तमानकी नई जैन स्मृतियोमें चौसठ हजार या छयानवे हज़ार तो क्या, एक साथ दो स्त्रियाँ रखनेवालेकी भी प्रतिष्ठा समाप्त कर दी जायगी तब ही जैनसमाज अन्य धर्मसमाजोंमें सम्मानपूर्वक मुँह दिखा सकेगा। आजकलकी नई स्मृति के प्रकरणमें एक साथ पाँच पति रखनेवाली द्रौपदीके सतीत्वकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, परन्तु प्रामाणिकरूपसे पुनर्विवाह करनेवाली
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धर्म और समाज
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- स्त्री के सतीत्वकी प्रतिष्ठाको दर्ज किये बिना भी छुटकारा नहीं । नई स्मृतिर्मे चालीस वर्ष से अधिककी उम्र वाले व्यक्तिका कुमारी कन्या के साथ विवाह बलात्कार या व्यभिचार ही समझा जायगा । एक स्त्रीकी मौजूदगी में - दूसरी स्त्री ब्याहनेवाले आजकालकी जैन-स्मृतिमें स्त्री- घातक गिने जायेंगे; - क्योंकि आज नैतिक भावनाका जो बल चारों तरफ फैल रहा है उसकी अवग
ना करके जैनसमाज सबके बीच मानपूर्वक नहीं रह सकता । जात-पाँतके बन्धन कठोर किये जायँ या ढीले, यह भी व्यबहारकी अनुकूलताका प्रश्न है । इसलिए उसके विधान भी नये सिरे से ही बनाने पड़ेंगे। इस विषय में प्राचीन
reater आधार खोजना हो तो वह जैनसाहित्य मेंसे मिल सकता है; परन्तु खोजकी 'मेहनत करने की अपेक्षा ध्रुव जैनत्व - समभाव और सत्यदृष्टि - कायम - रखकर उसके आधारपर व्यवहारके अनुकूल जीवन अर्पण करनेवाली लौकिक • स्मृतियाँ रच लेना ही अधिक श्रेयस्कर है ।
संस्थाके विषय में कहना यह है कि आज तक वह बहुत बार फेंक दी गई 'है, फिर भी खड़ी है। पार्श्वनाथके पश्चात् विकृत होनेवाली परम्पराको महावीरने 'फेंक दिया, परन्तु इससे गुरुसंस्थाका अन्त नहीं हुआ । चैत्यवासी गये तो समाजने दूसरी संस्था माँग ली । जतियोंके दिन पूरे होते ही संवेगी साधु - खड़े हो गये । गुरुसंस्थाको फेंक देनेका अर्थ सच्चे ज्ञान और सच्चे त्यागको फेंक देना नहीं है। सच्चे त्यागको तो प्रलय भी नष्ट नहीं कर सकता । इसका अर्थ इतना ही है कि आजकल गुरुओंके कारण जो अज्ञान पुष्ट होता है, जिस विक्षेप से समाज शोषित होता है, उस अज्ञान तथा विक्षेपसे - बचने के लिए समाजको गुरुसंस्थाके साथ असहकार करना चाहिए । असहकार के अभि-तापसे सच्चे गुरु तो कुन्दन जैसे होकर आगे निकल आवेंगे । जो मैले होंगे वे या तो शुद्ध होकर आगे आयेंगे या जलकर भस्म हो जायगे; परन्तु आजकल समाजको जिस प्रकारके ज्ञान और - त्यागवाले गुरुओंकी जरूरत है, ( सेवा लेनेवाले नहीं किन्तु सेवा देनेवाले मार्गदर्शकों की जरूरत है, ) उस प्रकारके ज्ञान और त्यागवाले - गुरु उत्पन्न करने के लिए उनकी विकृत गुरुत्ववाली संस्थाके साथ आज नहीं तो कल असहकार किये बिना छुटकारा नहीं । हाँ, गुरुसंस्था में यदि
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शास्त्र मर्यादा
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कोई एकाध भाईका लाल, सच्चा गुरु, जीवित होगा तो इस कठोर प्रयोगके पहले ही गुरुसंस्थाको बरबादी से बचा लेगा । जो व्यक्ति आन्तरराष्ट्रीय शान्ति - परिषद - जैसी परिषदों में उपस्थित होकर जगतका समाधान हो सके ऐसी रीतिसे अहिंसाका तत्त्व समझा सकेगा, अथवा अपने अहिंसा- बलपर वैसी परिषदों के हिमायतियोंको अपने उपाश्रयमें आकर्षित कर सकेगा, वही अब सच्चा जैनगुरु बन सकेगा । इस समयका जगत पहलेकी अल्पतासे मुक्त होकर विशालतामें जाता है, वह / जात-पाँत, सम्प्रदाय, परम्परा, वेष या भाषाकी पर्वाह किये विना केवल शुद्ध ज्ञान और शुद्ध त्यागकी प्रतीक्षामें खड़ा है । इससे यदि वर्तमान गुरुसंस्था शक्तिवर्धक होनेके बदले शक्ति-वाधक होती हो, तो उसकी और जैन समाजकी भलाई के लिए सर्व प्रथम प्रत्येक समझदार मनुष्यको उसके साथ असहकार करना चाहिए । यदि ऐसा करनेकी आज्ञा जैन शास्त्रोंमेंसे ही प्राप्त करनी हो तो वह सुलभ $ गुलामी की वृत्ति न नवीन रचती है और न प्राचीनको सुधारती या फेंकती है । इस वृत्तिके साथ भय और लालचकी सेना होती है । जिसे सद्गुणों की प्रतिष्ठा करनी होती है, उसे गुलामी वृत्तिका बुरका फेंक कर प्रेम और नम्रता कायम रख कर, विचार करना चाहिए ।
धंधे के विषय में जैनशास्त्रों की मर्यादा बहुत ही संक्षिप्त है और वह यह कि जिस चीजका धंधा धर्म-विरुद्ध या नीति-विरुद्ध हो, उस चीजका उपभोग भी धर्म और नीति विरुद्ध है । जैसे मांस और मद्य जैनपरम्पराके लिए वर्ज्य बतलाये गये हैं तो उनका व्यापार भी उतना ही निषिद्ध है । जिस वस्तुका व्यापार समाज नहीं करता है उसे उसका उपभोग भी छोड़ देना चाहिए । इसी कारण अन्न, वस्त्र और विविध वाहनोंकी मर्यादित भोग- तृष्णा रखनेवाले भगवान् के मुख्य उपासक अन्न, वस्त्र वगैरह सभी चीजें उत्पन्न करते थे और उनका व्यापार करते थे | जो मनुष्य दूसरेकी कन्या के साथ विवाह कर अपना घर तो बसावे पर अपनी कन्याके विवाह में धर्म-नाश देखे, वह या तो मुर्ख होना चाहिए और या धूर्त | समाज में प्रतिष्ठित तो वह नहीं होना चाहिए । यदि कोई मनुष्य कोयला, लकड़ी, चमड़ा और यंत्रोंका प्रकट रूपसे उपयोग करता है पर वैसे व्यापारका त्याग करता है तो इसका यही अर्थ है कि वह दूसरोंसे वैसे
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________________ धर्म और समाज व्यापार कराता है। करनेमें अधिक दोष है और कराने तथा सम्मति देने में कम, ऐसा ऐकान्तिक कथन तो जैन शास्त्रोंमें नहीं है / अनेक बार करनेकी अपेक्षा कराने तथा सम्मति देनेमें अधिक दोष होनेकी संभावना रहती है। जो बौद्ध मांसका धंधा करने में पाप मान कर केवल मांसके भोजनको निष्पाप मानते हैं, उन बौद्धोंसे जैनशास्त्र कहता है कि "तुम भले ही धंधा न करो परन्तु तुम्हारे द्वारा उपयोग; आते हुए मांसको तय्यार करनेवाले लोगोंके पापमें तुम भागीदार हो,” क्या वही निष्पक्ष शास्त्र केवल कुलधर्म होनेके कारण जैनोंसे कहते हुए हिचकेंगे? नहीं, वे तो खुल्लमखुल्ला कहेंगे कि या तो भोग्य चीजोंका त्याग करो और त्याग न करो तो जैसे उनके उत्पन्न और उनके व्यापार करने में पाप समझते हो वैसे दूसरों द्वारा तय्यार हुई और दूसरों के द्वारा सुलभ की गई चीजोंके भोगमें भी उतना ही पाप समझो। जैनशास्त्र तुमको अपनी मर्यादा बतलाएगा कि दोष या पापका सम्बन्ध भोगवृत्तिके साथ है, केवल चीजों के सम्बन्धके साथ नहीं / जिस ज़मानेमें 'मजदूरी ही रोटी है,' का सूत्र जगद्व्यापी हो रहा है उस ज़माने में समाजके लिए अनिवार्य आवश्यक अन्न, वस्त्र, रस, मकान, आदि खुद उत्पन्न करने और उनका धंधा करनेमें दोष माननेवाले या तो अविचारी हैं या धर्ममूढ़। . [पर्युषणव्याख्यानमाला, 1930 ]