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शास्त्र-मर्यादा
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शब्दोंके पीछे रही हुई भावनाओंको वेदकालीन और उपनिषत्कालीन इन्हीं शब्दोंपर आरोपित भावनाओंके साथ तुलना करो, तो पिछले पाँच हज़ार वर्षोंमें आर्य लोगोंके मानसमें कितना परिवर्तन हुआ है यह स्पष्ट मालूम हो जायगा । यह परिवर्तन कुछ एकाएक नहीं हुआ, या विना बाधा और विना विरोधके विकासक्रममें इसे स्थान नहीं मिला बल्कि इस परिवर्तनके होनेमें जैसे समय लगा है वैसे इन स्तरोंको स्थान प्राप्त करने में भी बहुत टक्कर सहनी पड़ी है। नये विचारक और सर्जक अपनी भावनाके हथोड़ेसे प्राचीन शब्दोंकी एरण (निहाई) पर रूढ लोगोंके मानसको नया रूप देते हैं। हथोड़ा और एरणके बीच में मानसकी धातु देशकालानुसार परिवर्तित भावनाओंके और विचारणाओंके नये नये रूप धारण करती है; और नवीन-प्राचीनकी काल-चक्कीके पाट नया नया यीसते जाते हैं और मनुष्यजातिको जीवित रखते हैं ।
वर्तमान युग इस युगमें बहुत-सी भावनाएँ और विचारणाएँ नये ही रूपमें हमारे सामने आती हैं। राजकीय या सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र तकमें स्वरासे नवीन भावनाएँ प्रकाशमें आ रही हैं। एक ओर भावनाओंको विचारकी कसौटीपर चढ़ाये विना स्वीकार करनेवाला मन्दबुद्धि वर्ग होता है,
और दूसरी ओर इन भावनाओंको विना विचारे फेंक देने या खोटी कहनेवाला जरठबुद्धि वर्ग भी कोई छोटा या नगण्य नहीं होता । इन संयोगोंमें क्या होना चाहिए और क्या हुआ है, यह समझानेके लिए ऊपर चार बातोंकी चचों की गई हैं। सर्जक और रक्षक मनुष्य जातिके नैसर्गिक फल हैं। इनके अस्तित्वको प्रकृति भी नहीं मिटा सकती। नवीन-प्राचीनका द्वंद्व सत्यके आविर्भावका
और उसे टिका रखनेका अनिवार्य अंग है । अतः इससे भी सत्यप्रिय घबड़ाता नहीं। शास्त्र क्या और कौन, इन दो विशेष बातोंकी दृष्टिके विकासके लिए, अथवा नवीन और प्राचीनकी टक्करके दधि-मंथनमेंसे अपने आप ऊपर आ जानेवाले मक्खनको पहचाननेकी शक्ति विकसित करनेके लिए यह चर्चा की गई हैं । ये चार खास बातें तो वर्तमान युगकी विचारणाओं और भावनाओंको समझने के लिए केवल प्रस्तावना हैं । अब संक्षेपसे जैन समाजको लेकर सोचिए कि उसके सामने आज कौन कौन राजकीय, सामाजिक और आध्यात्मिक
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