Book Title: Shastra Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 12
________________ १०६ धर्म और समाज सुरक्षित रख सकता है और यदि वह स्वयं शुद्ध न हो तो त्यागीवर्गमें रहते हुए भी सदा भलिनता और भ्रमणामें पड़ा रहता है। क्या हम त्यागी माने जाने वाले जैनोंको छल प्रपंच और अशुद्धि में लिपटा हुआ नहीं देखते ? यदि राष्ट्रीय वृत्तिकी ओरसे तटस्थ त्यागीवर्गमें एकाध सच्चा जैन मिलनेका संभव हो, तो आधुनिक राष्ट्रीय प्रवृत्ति और राजकीय क्षेत्रमें कूदने वाले वर्गमें उससे भी अधिक श्रेष्ठ गुण-जैनत्वको धारण करनेवाले अनेक लोग क्या नहीं मिलते जो जन्मसे भी जैन हैं ? फिर त्यागी माने जानेवाले जैनवर्गमें राष्ट्रीयता और राजकीय क्षेत्रमें समयोचित भाग लेनेके उदाहरण साधुसंघके इतिहासमें क्या कम हैं ? फर्क है तो इतना ही कि उस समय राष्ट्रीय वृत्तिमें साम्प्रदायिक और नैतिक भावनायें साथ साथ काम करती थीं: जब कि आज साम्प्रदायिक भावना जरा भी कार्यसाधक या उपयोगी नहीं हो सकती । इससे यदि नैतिक भावना और अर्पणवृत्ति हृदय में हो, जिसका शुद्ध जैनत्वके साथ संपूर्ण मेल है, तो गृहस्थ या त्यागी किसी भी जैनको, जैनत्वमें जरा भी बाधा न आए बल्कि अधिक पोषण मिले इस रीतिसे, काम करनेका राष्ट्रीय तथा राजकीय क्षेत्रमें पूर्ण अवकाश है। घर और व्यापारके क्षेत्रकी अपेक्षा राष्ट्र और राजकीय क्षेत्र बड़ा है, यह बात ठीक; परन्तु विश्वके साथ अपना मेल होनेका दावा करनेवाले जैनधर्मके लिए तो राष्ट्र और राजकीय क्षेत्र भी घर-जैसा ही छोटा-सा क्षेत्र है। बल्कि आज तो इस क्षेत्रमें ऐसे कार्य शामिल हो गये हैं जिनका अधिकसे अधिक मेल जैनत्व, समभाव और सत्यदृष्टिके ही साथ है। मुख्य बात यह है कि किसी कार्य अथवा क्षेत्रके साथ जैनत्वका तादात्म्य संबंध नहीं । कार्य और क्षेत्र चाहे जो हो यदि जैनत्वकी दृष्टि रखकर उसमें प्रवृत्ति होगी तो वह सब शुद्ध ही होगा। दुसरा प्रश्न विवाह-प्रथा और जात-पातका है। इस विषयमें जानना चाहिए कि जैनत्वका प्रस्थान एकान्त त्यागवृत्ति से हुआ है । भगवान महावीरको जो कुछ अपनी साधनाके फलस्वरूप जान पड़ा था वह तो ऐकान्तिक त्याग था; परन्तु सभी त्यागके इच्छुक एकाएक उस भूमिकापर नहीं पहुँच सकते। भगवान् इस लोकमानससे अनभिज्ञ न थे, इसीलिए वे उम्मीदवार के कम या अधिक त्यागमें सम्मत होकर ‘मा पडिबंधं कुणह '--'विलम्ब मत कर' कह कर सम्मत होते गये। और शेष भोगवृत्ति तथा सामाजिक मर्यादाओंका नियमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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