________________ धर्म और समाज व्यापार कराता है। करनेमें अधिक दोष है और कराने तथा सम्मति देने में कम, ऐसा ऐकान्तिक कथन तो जैन शास्त्रोंमें नहीं है / अनेक बार करनेकी अपेक्षा कराने तथा सम्मति देनेमें अधिक दोष होनेकी संभावना रहती है। जो बौद्ध मांसका धंधा करने में पाप मान कर केवल मांसके भोजनको निष्पाप मानते हैं, उन बौद्धोंसे जैनशास्त्र कहता है कि "तुम भले ही धंधा न करो परन्तु तुम्हारे द्वारा उपयोग; आते हुए मांसको तय्यार करनेवाले लोगोंके पापमें तुम भागीदार हो,” क्या वही निष्पक्ष शास्त्र केवल कुलधर्म होनेके कारण जैनोंसे कहते हुए हिचकेंगे? नहीं, वे तो खुल्लमखुल्ला कहेंगे कि या तो भोग्य चीजोंका त्याग करो और त्याग न करो तो जैसे उनके उत्पन्न और उनके व्यापार करने में पाप समझते हो वैसे दूसरों द्वारा तय्यार हुई और दूसरों के द्वारा सुलभ की गई चीजोंके भोगमें भी उतना ही पाप समझो। जैनशास्त्र तुमको अपनी मर्यादा बतलाएगा कि दोष या पापका सम्बन्ध भोगवृत्तिके साथ है, केवल चीजों के सम्बन्धके साथ नहीं / जिस ज़मानेमें 'मजदूरी ही रोटी है,' का सूत्र जगद्व्यापी हो रहा है उस ज़माने में समाजके लिए अनिवार्य आवश्यक अन्न, वस्त्र, रस, मकान, आदि खुद उत्पन्न करने और उनका धंधा करनेमें दोष माननेवाले या तो अविचारी हैं या धर्ममूढ़। . [पर्युषणव्याख्यानमाला, 1930 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org