Book Title: Shastra Maryada
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 4
________________ धर्म और समाज ज़रूरी है कि उसकी जितनी कीमत हो उससे अधिक आँक करके अंधश्रद्धा विकसित न की जाय और कमती आँककर नास्तिकता न प्रकट की जाय । ऐसा किया जाय तो यह मालूम हुए विना न रहेगा कि अमुक विषयसंबंधी मंथन क्यों तो शास्त्र है, क्यों अशास्त्र है और क्यों कुछ नहीं । देश, काल और संयोगसे परिमित सत्यके आविर्भावकी दृष्टिसे ये सब ही शास्त्र हैं, सत्यके सम्पूर्ण और निरपेक्ष आविर्भावकी दृष्टिसे अशास्त्र हैं और शास्त्रयोगके पार पहुँचे हुए समर्थ योगीकी दृष्टिसे शास्त्र या अशास्त्र कुछ भी नहीं । स्वाभिमत साम्प्रदायिक शास्त्रके विषयमें पुष्ट मिथ्या अभिमानको गलानेके लिए इतनी ही समझ काफी है। यदि यह मिथ्या अभिमान गल जाय, तो मोहका बन्धन दूर होते ही सभी महान् पुरुषोंके खण्ड-सत्योंमें अखण्ड सत्यका दर्शन हो जाय और सभी विचारसरणियोंकी नदियाँ अपने अपने ढंगसे एक ही महासत्यके समुद्र में मिलती हैं, ऐसी स्पष्ट प्रतीति हो जाय । यह प्रतीति कराना ही शास्त्र-रचनाका प्रधान उद्देश्य है । सर्जक और रक्षक शास्त्रके सर्जक अन्य होते हैं, उनकी रक्षा अन्य करते हैं और अन्य कुछ मनुष्योंके द्वारा उनकी सँभालके अतिरिक्त उनमें वृद्धि की जाती है। रक्षकों, संशोधकों और परिशिष्टकारों ( पूर्तिकारों) की अपेक्षा सर्जक ( रचयिता) हमेशा कम होते हैं। सर्जकोंमें भी सब समान कोटिके होते हैं, यह समझना मनुष्यप्रकृतिका अज्ञान है । रक्षकोंके मुख्य दो भाग होते हैं । एक भाग सर्जककी कृतिके प्रति आजन्म वफादार रहकर उसका आशय समझनेकी, उसे स्पष्ट करनेकी और उसका प्रचार करनेकी कोशिश करता है । वह इतना अधिक भक्तिसम्पन्न होता है कि उसे अपने पूर्वीय स्रष्टाके अनुभवमें कुछ भी सुधार या परिवर्तन करना योग्य नहीं लगता। इससे वह अपने पूज्य स्रष्टाके वाक्योंको अक्षरशः पकड़े रहकर उनमेंसे ही सब कुछ फलित करनेका प्रयत्न करता है और संसारकी तरफ़ देखनेकी दूसरी आँख बन्द कर लेता है। दूसरा भाग भक्तिसम्पन्न होनेके अतिरिक्त दृष्टिसम्पन्न भी होता है। इससे वह अपने पूज्य स्रष्टाकी कृतिका अनुसरण करते हुए भी उसे अक्षरशः नहीं पकड़े रहता, उलटा वह उसमें जो जो त्रुटियाँ देखता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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