Book Title: Sanskrit Sahitya Ka Itihas
Author(s): V Vardacharya
Publisher: Ramnarayanlal Beniprasad

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Page 13
________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास तुमुन् ( को, के लिए ) और क्त्वा ( करके ) प्रत्यय के विभिन्न विचित्र रूप प्राप्त होते हैं, जैसे—परादै, भूवे, समिधम्, संदृशि तथा का और वक्त्वा । ये सभी रूप श्रेव्य काल में सर्वथा लुप्त हो गये हैं । __ वैदिक काल में यह भाषा धार्मिक और बोलचाल दोनों कार्यों के प्रयोग में आती थी। पुरोहित आदि यज्ञ के समय इसका शुद्ध प्रयोग करते थे, किन्तु बोलचाल में इसमें वे अशुद्धियाँ भी कर देते थे। भाषा की इस अव्यवस्था को नियमों के द्वारा रोकने के लिये कई वैयाकरणों ने विभिन्न समयों में प्रयत्न किए, किन्तु यह उद्देश्य सातवीं शताब्दी ई० पू० में ही पूर्ण हुआ, जब पानि ने अष्टाध्यायी की रचना द्वारा इस भाषा के निश्चित नियमों का निर्माण किया । तत्पश्चात् पाँचवीं शताब्दी ई० पू० में कात्यायन हुए जिनका दूसरा नाम वररुचि भी है। इन्होंने अष्टाध्यायी पर 'वार्तिक' लिखे । इन वार्तिकों में पाणिनि के नियमों की समीक्षा है। द्वितीय शताब्दी ई० पू० में पतंजलि हुए । इन्होंने अष्टाध्यायी पर महाभाष्य नामक ग्रन्थ लिखा। इन दोनों वैयाकरणों ने पाणिनि के नियमों की विस्तृत व्याख्या की तथा आवश्यक संशोधन और परिवर्तन भी किए । इन वैयाकरणों ने जो नियम बनाए, उनसे यह भाषा पूर्ण हुई। यही अवसर है जब इस भाषा ने संस्कृत नाम प्राप्त किया । किन्तु इसका यह भाव नहीं है कि वैदिक काल की समाप्ति के बाद ही श्रेण्य भाषा का प्रादुर्भाव हुआ । श्रेण्य भाषा के रूपों की सत्ता वैदिक काल की समाप्ति से पूर्व भी दृष्टिगोचर होती है, जैसा कि पाणिनि के सूत्रों से स्पष्ट है । क्योंकि उन्होंने जो सूत्र बनाये हैं, उनमें से कुछ वैदिक भाषा पर लागू होते हैं और कुछ श्रेण्य भाषा पर। बाद की भाषा को पाणिनि ने भाषा नाम दिया है। यह भाषा वैदिक भाषा से कुछ अन्तर रखती थी और वैदिक काल में ही श्रेण्य भाषा के प्रादुर्भाव को सूचित करती है । ___श्रेण्य काल में संस्कृत भाषा की बहुत उन्नति हुई । धार्मिक और लौकिक सभी प्रकार के विषयों का इस भाषा में विवेचन हुआ। काव्यकला और दार्श

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