Book Title: Sanskrit Sahitya Ka Itihas
Author(s): V Vardacharya
Publisher: Ramnarayanlal Beniprasad

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Page 12
________________ संस्कृत साहित्य का इतिहास अध्याय १ भूमिका भारतवर्ष में प्राचीनकाल से धार्मिक और लौकिक कार्यों के लिए जिस भाषा का उपयोग किया जाता रहा है, उसे संस्कृत कहते हैं। इस भाषा का यह नाम लगभग ७०० ई० पू० में पड़ा है, जब प्रमुख वैयाकरण पाणिनि ने इस भाषा के नियमों का निर्माण किया । इस समय से पूर्व इसको दैवी वाक (देववाणी) कहते थे । यह संस्कृत नाम इस बात को स्पष्ट करता है कि यह भाषा परिष्कृत और संशोधित है । इस भाषा का उपयोग बोलचाल के कामों में भी होता था। इसी भाषा में भारतीयों का समस्त प्राचीन वाङमय लिखित है । बहुत बाद में संस्कृत और प्राकृत से निकली हुई भाषाओं का उपयोग साहित्यिक कार्यों के लिए हुआ। इस काल में भी संस्कृत का स्थान प्रमुख रहा। इस भाषा के विकास में दो अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । (१) वैदिक काल (२) श्रेण्य काल । इनमें से पहली अवस्था में भाषा सरल, स्वाभाविक और प्रोजयुक्त थी। वैदिक काल का अधिक साहित्य इसी में लिखा गया है। द्वितीय काल की बहुत सी विशेषताएँ इस भाषा में दिखाई देती हैं । इसमें व्याकरण के रूपों की विभिन्नता विशेष रूप से दिखाई देती है । जैसे, क्रिया सम्बन्धी रूपों में परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों का ही अबाध प्रयोग और दोनों का परस्पर परिवर्तन । तुमन् (को, के लिए) के अर्थ में कृदन्त रूपों में से, तवे, तवै आदि प्रत्यय, जिनसे वक्षे, सूतवे, मादयितवै आदि रूप बनते हैं। इसी प्रकार त्वा ( करके ) के स्थान पर त्वाय प्रत्यय, जैसे-गत्वा के स्थान पर गत्वाय । देवासः, विप्रासः, कर्णेभिः, पूर्वेभिः, देवेभिः तथा अन्य इस प्रकार के प्रयोग शब्दों के रूपों की विचित्रता प्रकट करते हैं । इसी प्रकार

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