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अनुसन्धान-५५
अवक्तव्य कहेवं - आमां स्पष्ट विरोध छे. उपाध्यायजी महाराज 'अवक्तव्य शब्दविषय कहीइं तो विरोध थाइ' आ पंक्तिथी आवो ज भाव सूचवे छे. माटे आवो विरोध आवतो होवाथी पण व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भांगो न थाय."
__ आ समग्र चर्चा प्राथमिक दृष्टिले आपणने प्रभावित करी दे तेम छे. छतां आपणे सूक्ष्मताथी विचारीशुं तो अमां आपणने ठेकठेकाणे त्रुटि देखाया वगर नहीं रहे. जेमके अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय ओटले दीर्घकालीन पर्याय -आवी सर्वत्र प्रसिद्धि छे. तो शा माटे अनाथी जुदा पडीने 'अर्थक्रियाकारित्वना निमित्तभूत पर्यायो ते अर्थपर्यायो' अने 'वाच्यताओ? अटले व्यंजनपर्यायो' ओवी व्याख्या बांधवी जोइ ? आम करवामां कयो तर्क ? आ रीते व्याख्या बांधवामां सत्त्व, ज्ञेयत्व व. पर्यायो के जे अर्थगत विशिष्ट अर्थक्रियाना जनक पण नथी अने वाच्यतारूप पण नथी, ते बन्ने कोटिमांथी बहार नीकळी जाय छे. तो आ पर्यायोमां भंगव्यवस्था कई रीते समजवी ? ओ भंगव्यवस्था जे पण होय ते, सन्मतितर्कमां तो अनुं निरूपण नथी अर्बु ज आना परथी सिद्ध थाय, तो अने सन्मतितर्कनी त्रुटि गणवी ? वळी, अस्तित्व, रक्तत्व वगेरे पर्यायोनी अपेक्षाओ, वाच्यतानी जेम ज्ञेयता वगेरे पण अनेक-अनेक भिन्नताओ धरावे ज छे. तो शा माटे ओवा पर्यायोथी वाच्यताने ज अलग करवी जोइओ अने अमां खास भंगव्यवस्था देखाडवी जोइओ ? ज्ञेयता वगेरेने अंगे केम नहीं ? धारोके, आ बधी चर्चा न करीओ तो पण, अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायनो उपरोक्त अर्थ कर्या पछी, 'अर्थपर्याय अभिन्न होय छे अने व्यंजनपर्याय भिन्न-अभिन्न बन्ने होय छे.'२ आवा सन्मतितर्कना वचननी संगति करवी शक्य खरी ?
आ चर्चानी सौथी मोटी त्रुटि तो ओ छे के अमां करायेलुं सप्तभंगीनुं निरूपण सप्तभंगीनी शास्त्रीय अने सर्वमान्य विभावनाथी सदन्तर विपरीत छे. सप्तभंगीनुं प्रणयन शा माटे थाय, कई रीते थाय, अमां धर्म, धर्मी अने अपेक्षाओनी व्यवस्था कई होय ? - आ बधुं प्रमाणनयतत्त्वालोकथी मांडीने
१. उपाध्यायजी भगवन्ते केटलाक स्थळे व्यंजनपर्यायनो अर्थ शब्दनिरूपितवाच्यता देखाड्यो
छे तेनुं वास्तविक तात्पर्य शुं छे ते माटे जुओ पृ. १०९ २. अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणवियप्पो – सन्मति १.३०