Book Title: Sanmati Tarka Gatha 1 41 na Tatparya Vishe Vicharna
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ सन्मतितर्क - गाथा १.४१ना तात्पर्य विशे विचारणा मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण, सवियप्पो निम्वियप्पो य ॥ सन्मति. - १.४१ (एवं सप्तविकल्पो, वचनपथो भवत्यर्थपर्याये । व्यञ्जनपर्याये पुनः, सविकल्पो निर्विकल्पश्च ॥) सन्मतितर्कमां सप्तभंगीनी प्ररूपणा पछी मूकायेली उपर्युल्लिखित गाथा, सप्तभंगीमां नयनी योजना दर्शावता शास्त्रपाठ तरीके सुप्रसिद्ध छे अने जैनन्यायने सम्बन्धित अनेक ग्रन्थोमां ओ उद्धृत थयेली जोवा मळे छे. आ गाथानो शब्दार्थ आवो थाय छे : "आ प्रमाणे (-पूर्वेनी गाथाओमां देखाड्या मुजब) सात विकल्प धरावतो वचनमार्ग अर्थपर्यायमां थाय छे. व्यंजनपर्यायमां तो सविकल्प अने निर्विकल्प वचनमार्ग छे." आम, आ गाथानो शब्दार्थ तो तद्दन सरळ छे, पण जे शब्दो पाछळनुं तात्पर्य पकडवू अटलुं ज अघरुं छे. __ आ गाथाना तात्पर्य विशे सौप्रथम छणावट आपणने सन्मतितर्क परनी वादमहार्णव टीका (-श्रीअभयदेवसरिजीकृत)मां जोवा मळे छे. त्यार पछीनां आ गाथा परनां तमाम विवरणो प्रायः टीकाने ज अनुसरे छे. एकमात्र उपा. श्रीयशोविजयजीओ अनेकान्तव्यवस्था अने द्रव्यगुणपर्यायरासस्तबकमां आ गाथा विशे थोडीक नवी वातो रजू करी छे. अने ते उपरान्त, श्रीअभयशेखरसूरिजीओ सप्तभंगीविशिका, द्रव्यगुणपर्यायरास-विवेचन व. ग्रन्थोमां आ गाथा विशे मौलिक विचारणा दर्शावी छे. वळी, पं. श्रीसुखलालजीओ पण सन्मतितर्क-अनुवादमां आ गाथाना तात्पर्य अंगे अक नवी ज दिशा चींधी छे. अत्रे आ तमाम रजूआतो, ते पाछळना आशयो, तेओनी परस्पर भिन्नता, मूळग्रन्थना सन्दर्भे तेओनी युक्तता व. विशे विचारवानो उपक्रम छे. आ गाथाना तात्पर्य विशे विचारवा माटे, सप्तभंगी अटले शुं? ते विशे थोडंक समजी लेवु जरूरी छे. सप्तभंगी ओ जैन पारिभाषिक शब्द छे अने तेनो अर्थ 'धर्मीमां धर्मना आपेक्षिक अस्तित्वनो परिपूर्ण बोध करावनार Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनुसन्धान-५५ सात वाक्यो' ओवो थाय छे. भाव ओ छे के कोई पण धर्म (-पर्याय), धर्मी (-द्रव्य, आत्मा जेवां मूळभूत द्रव्य के घडा जेवां आदिष्ट द्रव्य)मां चोक्कस देश-कालादिनी अपेक्षाओ ज अस्तित्व धरावतो होय छे, ते सिवायनी अपेक्षाओ नहीं. हवे जो आपणे ओ अपेक्षा देखाड्या वगर ज, ते धर्मना धर्मीगत अस्तित्वनं प्रतिपादन करीओ, तो ओ प्रतिपादन अपूर्ण के विपरीत बोध जन्मावतुं होवाथी अमान्य ज गणाय. तेथी आपणे वास्तविक बोध कराववा माटे, जे अपेक्षाओ ओ धर्म धर्मीमां छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ते बंने जणाववा ज रह्या. धर्मना आ आपेक्षिक अस्तित्व-नास्तित्वनुं प्रतिपादन अ ज सप्तभंगीना अनुक्रमे प्रथम बे- पहेलो अने बीजो भांगा छे. आ पहेला बे भांगानो बोध थाय अटले तरत प्रश्न उपस्थित थाय के- धर्म जे अपेक्षाओ धर्मीमां छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ओ बन्ने अपेक्षाओगें ओक साथे ग्रहण करीओ तो त्यारे धर्म विशे शुं समजवू ? आ प्रश्नना उत्तरमां अवक्तव्य अम ज कहेवू पडे. कारण के, बन्ने अपेक्षाओ धर्मनुं जे अस्तित्वनास्तित्व उभयनां संमीलनरूप ओक विशिष्ट स्वरूप सर्जाय छे, तेने आपणे बुद्धिथी समजी तो शकीओ, पण शब्दथी तेने वर्णववानुं शक्य नथी ज, तेथी तेने शब्दातीत- अवक्तव्य ज कहेवू पडे. आ अवक्तव्यनो प्रतिपादक त्रीजो भांगो छे.२ आ त्रण भांगामांथी बे-बेना संमिश्रणथी चोथाथी छठ्ठा सुधीना बीजा त्रण भांगा सर्जाय छे. आ भांगा पहेला त्रण भांगाना संयोगात्मक होवा छतां ओमनाथी कथंचिद् भिन्न पण छे. गोळ अने दहीं साथे खाईओ तो ओ बन्नेना पोतपोताना स्वाद उपरान्त जेम ओक विलक्षण स्वाद अनुभवाय छे, तेम ज १. घडो वास्तवमा पुद्गलास्तिकायनो पर्याय छे, छतां अनो पण द्रव्य तरीके व्यवहार ___थाय छे, तेथी ते आदिष्टद्रव्य कहेवाय छे. २. सप्तभंगीमां त्रीजो भांगो 'स्यादस्त्येव स्यान्नाऽस्त्येव च' ओम पहेला बे भांगाना संयोजनरूप होय, अने चोथो भांगो अवक्तव्यनो होय -ओवी पण ओक परम्परा छे. पण सन्मतितर्ककार, तत्त्वार्थटीकाकार श्रीसिद्धसेनगणि व. अवक्तव्यने ज त्रीजा भांगाथी प्रतिपाद्य गणता होवाथी, अहीं बधे 'स्यादवक्तव्य एव'ने ज त्रीजो भांगो गणाव्यो छे. आ बे परम्परानी भिन्नता सकलादेश-विकलादेशनी भिन्न भिन्न विभावनाने आभारी छे, ते समजवा माटे जुओ सप्तभंगीप्रभा- पृ. ६४-७५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ८५ अहीं पण समजवानुं छे. सातमो भांगो त्रणे मूलभूत भांगाना संयोजनरूप छे. आ साते भांगा ओकठा थाय अटले सर्जातुं महावाक्य, परिपूर्ण बोध करावतुं होवाथी, प्रमाणवाक्य गणाय छे. उदाहरण साथे आ वात जोइओ तो– 'घडो लाल छे ?' ओम कोई पूछे अने जवाबमां फक्त हा पाडवामां आवे, तो अनाथी व्यक्तिने थतो घडामां सर्वथा रक्तत्वनो बोध अप्रामाणिक ज छे, कारण के घडो फक्त बहारथी लाल छे, अंदरथी नहीं. तेथी आम कहेवू जोइओ- घडो बहारथी लाल छे (स्याद् घटो रक्त एव, स्याद् = अपेक्षाओ, प्रस्तुत सन्दर्भमां बहारना भागे),पण अंदरथी लाल नथी (स्याद् घटोऽरक्त एव). आ ज सप्तभंगीना पहेला बे भांगा छे. पण बहारथी अने अंदरथी अकसाथे जोइओ तो घडो लाल छे पण खरो, अने नथी पण. तेथी कहेवू पडे के ते रीते घडानुं स्वरूप कहेवानुं शक्य नथी.१ (स्याद् घटोऽवक्तव्य एव) आ त्रीजा भांगा द्वारा प्रतिपादित थती अवक्तव्यता घडामां रक्तत्वना अस्तित्व-नास्तित्व उभयने आश्रित छे. आ त्रण भांगाना संयोजन द्वारा बाकीना भांगा आम सर्जाशे : स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽरक्तश्चैव, स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव, स्याद् घटोऽरक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव, स्याद् घटो रक्त एव स्याद् घटोऽरक्त एव स्याद् घटोऽवक्तव्यश्चैव। हवे आपणे वादमहार्णवटीकामां दर्शावायेला, आ गाथाना, बे अर्थो जोइशं. पण ओ जोतां पहेलां टीकाकारने सम्मत केटलाक शब्दार्थो समजी लेवा जरूरी छे. - (१) अर्थपर्याय - अर्थना ग्राहक संग्रह, व्यवहार अने ऋजुसूत्र ओ त्रण अर्थनयो. 'अर्थगताः पर्याया अस्तित्वनास्तित्वादयो विषया यस्य सोऽर्थपर्यायः' आवी कोइक 'अर्थपर्याय' शब्दनी व्युत्पत्ति तेओना मनमा होइ १. प्रश्न थाय के 'स्याद्- ओक साथे उभय अपेक्षाओ(-बहारथी अने अंदरथी) घटो- घडो रक्तोऽरक्तश्चैव- लाल छे पण अने लाल नथी पण अम केम न कहेवाय ? पण अनो जवाब ओ छे के आम कहेवामां 'बहारथी लाल छे अने लाल नहीं तेमज अंदरथी लाल छे अने लाल नहीं' ओम साबित थाय, जे अवास्तविक छे. आने बदले जो ओम कहेवा जइओ के 'घडो बहारथी लाल छे अने अंदरथी लाल नथी,' तो ओ चोथो भांगो थइ जाय छे. माटे ओक साथे उभयअपेक्षाओ घडानुं जे रक्त-अरक्त स्वरूप छे, तेने वर्णवq शक्य न होवाथी घडाने अवक्तव्य ज कहेवो पडे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५५ शके. (२) व्यंजनपर्याय- साम्प्रत, समभिरूढ अने अवम्भूत ओ त्रण शब्दनयो. 'जेनाथी अर्थ व्यक्त थाय ते व्यंजन अटले शब्द. तेना पर्यायो अटले तेमां रहेली वाचकता. शब्दनयो आ वाचकता- व्यंजननिष्ठपर्यायनो विचार करता होवाथी व्यंजनपर्याय कहेवाय' आवी कोइक समजण आवो अर्थ देखाडवा पाछळ होइ शके. (३) सविकल्प- आना बे अर्थ तेओओ देखाड्या छ- १. विकल्पोनो सद्भाव अने २. सामान्य- जाति. ओक सामान्यने आश्रयीने जुदा जुदा घणा विकल्पो- विशेषो संभवी शकता होवाथी, सामान्य पण सविकल्प कहेवाय छे. (४) निर्विकल्प- आना पण बे अर्थ देखाडवामां आव्या छे. - १.विकल्पोनो अभाव अने २. विशेष. विशेषना कोई विकल्प- विशेष संभवता न होवाथी, विशेष पण निर्विकल्प गणाय छे. विशेषने निविकल्प तरीके ओळखावनारी 'सामान्यस्वरूपमांथी निर्गत विकल्प- विशिष्टपर्याय ते निर्विकल्प' आवी व्युत्पत्ति पण संभवे छे. सविकल्प अने निर्विकल्पना अकने बदले बे अर्थ शब्दनयोना विशिष्ट स्वरूपने आभारी छे. शब्दनयोमा पहेलो साम्प्रतनय लिंग, कारक, काल वगेरे भेदे अर्थभेद माने छे, पण संज्ञाभेदे नहीं. मतलब के तेना माटे 'घटः' कहो अने 'घटम्' कहो, त्यारे अनुक्रमे कर्ताकारक अने कर्मकारक तरीके उपस्थित थती घटव्यक्ति जुदीजुदी छे; परन्तु 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो के 'कलशः' कहो, त्यारे ओ त्रणे शब्दथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज छे.१ १. अेक प्रश्न अवश्य जागे के जो साम्प्रतनयमते संज्ञा ओक ज होवा छतां, लिंग, कारक वगेरे जेवी सामान्य बाबत पण अर्थभेदक बनती होय; तो खुद संज्ञानु ज जुदापणुं अर्थभेदक केम नहीं ? आ प्रश्ननो जवाब आपणने नयरहस्यमांथी सांपडे तेम छे. त्यां उपाध्यायजीओ साम्प्रतनयनी मान्यतानो अभिप्राय ओ जणाव्यो छे के जे धर्मोनो अभेदान्वय शक्य नथी ते धर्मोने परस्पर भिन्न ज समजवा पडे अने ओ भिन्न धर्मो पोताना धर्मीने भिन्न बनावे ज. आनो मतलब ओ समजी शकाय के जेम पुरुषत्व अने स्त्रीत्वनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने तेना धर्मीओ परस्पर भिन्न छे; तेम कर्तृत्व अने कर्मत्वनो पण ओक साथे अेक पदार्थमां अन्वय शक्य नथी, अने तेथी ते बे धर्मो अने ते धरावनार घटव्यक्तिओ जुदी ज गणवी पडे. परन्तु घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व -आ बधा धर्मोनो ओक साथे ओक पदार्थमां अन्वय शक्य होवाथी ओ धर्मो पोताना आश्रयभूत धर्मीना भेदक बनता नथी. तेथी 'घटः' कहो के 'कुम्भः' कहो, ओ बन्ने पदथी उपस्थित थती घटव्यक्ति ओक ज रहे छे. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ८७ बीजो समभिरूढ नय संज्ञाभेदे पण ते ते पदथी वाच्य पदार्थोने जुदा गणे छे. अर्थात् तेना मते 'घटः' अने 'कुम्भः' पदथी उपस्थित थती व्यक्ति जुदी-जुदी छे. दरेक शब्दनी व्युत्पत्ति जुदी होय छे अने पदथी थतो बोध पण जे व्युत्पत्तिने अनुसरीने जुदो-जुदो थाय छे अवो आ नयनो अभिप्राय छे.१ शब्दनयोमां त्रीजो अवम्भूत नय तो अत्यन्त सूक्ष्मग्राही होवाथी अवस्थाभेदे पण वाच्यतानो भेद गणे छे. मतलब के तेना मते तो पदार्थना वाचक तरीके जे शब्दो स्वीकृत छे, ते शब्दोथी ते पदार्थ खरेखर त्यारे ज वाच्य बने छे, ज्यारे ओ शब्दोनी व्युत्पत्तिमां जे क्रिया समायेली छे ते क्रिया ते पदार्थमां वर्तमान होय, ओ सिवाय नहीं. आनो अर्थ ओ थाय के इन्द्रने त्यारे ज 'इन्द्रः' कहेवाय के ज्यारे 'इन्द्र' शब्दनी व्युत्पत्तिमां समायेली इन्दनक्रियाऔश्वर्यनो अनुभव ओ करतो होय. ज्यारे ओ देवसभामां बिराजमान थइने पोताना औश्वर्यनो अनुभव नथी करी रह्यो, त्यारे अने अन्य कंइ पण कहो, इन्द्र तो नहीं ज कहेवाय. ढूंकमां, अेक पदार्थनी (दा.त. इन्द्र तरीके ओळखाती व्यक्तिनी) अवस्था बदलाय तेम ते पदार्थनिष्ठ वाच्यता पण बदलाय अवो आ नयनो अभिप्राय छे.२ १. आनुं तात्पर्य ओम समजाय छे के जे शब्दोने आपणे पर्यायवाची गणीओ छीओ, ते शब्दोनी अर्थछायामां वास्तवमा सूक्ष्म तफावत होय छे ज. आ नय सूक्ष्मग्राही होवाथी आ सूक्ष्म तफावतने पण पकडे छे, अने तेथी चोक्कस सन्दर्भे चोक्कस शब्दोनो प्रयोग अने ते शब्दोथी चोक्कस पदार्थोनो बोध स्वीकारे छे. आपणे व्यवहारमा पण पर्यायवाची शब्दोने सन्दर्भ अनुसार ज प्रयोजीओ छीओ. जेमके 'नेत्र' अने 'डोळा' बंने शब्दो चक्षुवाची होवा छतां 'तारा डोळा सुन्दर छे' के 'नेत्रो केम काढे छे ?' अवां वाक्यो आपणे नथी ज बोलता. २. द्रव्यमा जे पर्याय वर्तमान होय, ओ ज पर्यायनी मुख्यताओ द्रव्यने जणावq ओ भावनिक्षेप गणाय छे. अने से पर्यायनी अतीत के अनागत अवस्थामां पण द्रव्यनो ते पर्यायनी मुख्यताओ व्यवहार ते द्रव्यनिक्षेप छे. अवम्भूत नय अतिशुद्ध होवाथी फक्त भावनिक्षेपने ज स्वीकारे छे अने तेथी वर्तमान पर्यायनी मुख्यताओ ज द्रव्यनु कथन करवानुं तेमज शब्दथी तद्वाच्य पर्यायथी विशिष्ट द्रव्यनो ज बोध करवायूँ कहे छे. आपणे व्यवहारमा पण जोइ शकीशु के 'ओक राजा हतो' ओम सांभळीओ अटले तरत घरेणां अने वस्त्राभूषणोथी लदायेली प्रतापी व्यक्ति चित्र आपणा मनमां ऊभुं थाय छे, 'निशाळ' शब्द सांभळता साथे ज जेमा विद्यार्थीओ भणी रह्या छे, शिक्षक भणावे छे एवं मकान नजर सामे तरवा लागे छे. आ वात सूचवे छे के पदथी थता पदार्थना बोधमां Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अनुसन्धान-५५ शब्दनयोना आ स्वरूपने बराबर समजी लइओ तो सविकल्प अने निर्विकल्पना बे अर्थ करवानुं कारण आपोआप समजाशे. शब्द अने अर्थबन्ने वच्चे वाचक-वाच्यभाव सम्बन्ध छे. शब्दमां वाचकता रहे छे अने अर्थ ते वाचकताथी निरूपित वाच्यता धरावे छे. आपणे जो आ बेमांथी वाच्यताने अनुलक्षीने विचारीओ तो अेक पदार्थनिष्ठ वाच्यताना साम्प्रतनयमते अनेक विकल्पो सम्भवे छे, कारण के तेना मते पर्यायवाची शब्दोथी जणाती व्यक्ति ओक ज छे. जेमके घडामां घटपदवाच्यता पण छे अने कुम्भपदवाच्यता, कलशपदवाच्यता वगेरे पण छे. पण समभिरूढ अने ओवम्भूत नयोना मते ओक पदार्थनिष्ठ वाच्यतामां विकल्पोनो सद्भाव नथी, कारण के आ नयो संज्ञाभेदे अर्थभेद मानता होवाथी, ओ नयोना मते अेक पदार्थ बे शब्दोथी वाच्य होय ते सम्भवित ज नथी. आम, ओक पदार्थनिष्ठ वाच्यताना उपलक्ष्ये साम्प्रतनयमां सविकल्प- विकल्पोवाळो वचनमार्ग छे, ज्यारे समभिरूढ-अवम्भूतमां निर्विकल्प- विकल्पो वगरनो वचनमार्ग छे. हवे, जो आपणे ओक-अर्थनिष्ठ वाच्यताने नहीं, पण ओक-शब्दनिष्ठ वाचकताने लक्ष्यमां राखीने विचारीओ तो, साम्प्रतनय अने समभिरूढनयना मते वाचकता सामान्यने आश्रित छे; कारण के साम्प्रतनय घटशब्दना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके घटत्वजातिने पकडे छे के जे कुम्भ, कलश वगेरे अनेक शब्दोना प्रवृत्तिनिमित्तभूत' छे अने घटनी अनेक अवस्थाओमा अनुगत छे. अ ज रीते पदार्थनी विशिष्ट अवस्था पण संकळायेली होय छे. अवम्भूत नय आ वातने मुख्य गणी पदथी थतो पदार्थनो बोध ते पदथी सूचवाती विशिष्ट अवस्था साथे ज स्वीकारे छे. आ ज वातने जुदी रीते जोइओ तो तेनो मतलब ओ थाय के विशिष्ट अवस्था धरावतो पदार्थ ज ते विशिष्ट अवस्था सूचवनार पदथी वाच्य छे. अवम्भूत नयनी शास्त्रीय प्ररूपणा आ जुदी रीते जणातां मतलबने ज अनुसरे छे. १. अहीं प्रश्न थइ शके के कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनी प्रवृत्तिमां घटत्वजाति कई रीते निमित्त बने ? कुम्भत्व, कलशत्व केम नहीं ? आनुं समाधान ओ ज छे के घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व वगेरे शब्दो ओक विशिष्ट स्वरूप ज सूचवे छे के जे सकल घटव्यक्तिमां वर्तमान छे. आ स्वरूप ज घट, कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनुं प्रवृत्तिनिमित्त छे. पण आ स्वरुपने बीजा कोई शब्दोथी ओळखावतुं शक्य न होवाथी; घटत्व, कुम्भत्व, कलशत्व वगेरे शब्दोथी ओळखाववामां आवे छे. तेमां पण घटत्व अने कुम्भत्व-कलशत्व जुदी वस्तु छे ओवो व्यामोह न थाय अटले घटत्वने ज कुम्भ, कलश वगेरे शब्दोनुं प्रवृत्तिनिमित्त समजाववामां आवे छे. 'व्यक्तेरभेदो जातिबाधकः' आवो जे न्यायदर्शननो नियम छे तेनुं तात्पर्य पण उपरोक्त ज छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ समभिरूढ पण घटशब्दना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके 'जलधारणयोग्यताने ज ग्रहण करे छे के जे, पाणी धारण करवुं धारण न करवुं जेवी घटनी अनेक अवस्थाओमां अनुगत होवाथी सामान्यधर्म ज छे. परन्तु अवम्भूतनयमते शब्दनिष्ठ वाचकता विशेषने आश्रित छे, कारण के ते घटपदना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके जलधारणक्रियारूप विशेषने ज पकडे छे, ते सिवाय तेना प्रवृत्तिनिमित्त तरीके तेने बीजो कोई विकल्प मान्य नथी. आम, वाचकताने अनुलक्षीने साम्प्रत अने समभिरूढमां सविकल्प - सामान्याश्रित वचनव्यवहार छे, ज्यारे अवम्भूतमां निर्विकल्प - विशेषाश्रित वचनमार्ग छे. सामान्य अनेक विकल्पोनुं समावेशक होवाथी सविकल्प पण कहेवाय छे अने विशेषमां कोई विकल्प सम्भवता न होवाथी ते निर्विकल्प तरीके पण ओळखाय छे, ते वात आपणे अगाउ जोई गया छीओ. ८९ आम, वाच्यता अने वाचकताने अनुलक्षीने सविकल्प - निर्विकल्पना अर्थो बदलाय छे. अने तेमां पण साम्प्रतनयनो वचनमार्ग बन्ने वखत सविकल्प, अवम्भूतनो बन्ने वखत निर्विकल्प अने समभिरूढनो वाच्यता वखते निर्विकल्प अने वाचकता वखते सविकल्प बने छे. हवे टीकामां देखाडेला आ गाथाना अर्थो जोइओ : टीकामां आ गाथानुं उत्थान अ विचारभूमिकामांथी देखाडवामां आव्युं छे के 'सप्तभंगीना मूल आधार तो द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक नयो ज छे, मतलब के आ नयोना उत्तरभेदो ज ते ते भांगानी प्रवृत्तिमां निमित्त छे. पण कया नयोमां कया भांगा समजवा'' - आ अंगेनी विचारभूमिका ओक ज होवा छतां टीकामां गाथाना बे विभिन्न अर्थो देखाडवामां आव्या छे. जोके अहीं ओक वात खास ध्यानमां राखवानी छे के बन्ने अर्थो वखते गाथाना पूर्वार्धनो अर्थ तो सरखो ज रहे छे; कारण के टीका मुजब पूर्वार्ध अर्थनयोने अनुलक्षीने छे. अने अर्थनयो तो अर्थगत धर्मोने ज लक्ष्यमां ले छे. आ अर्थगत धर्मो आपेक्षिक ज सम्भवता होवाथी, तेमनी ओ आपेक्षिकताने सूचवनारो पूर्णबोध सप्तभंगीमां ज पर्यवसित १. समभिरूढनयमते घडो जलधारण न करतो होय त्यारे पण घटशब्दथी वाच्य बने छे. तेथी ते जलधारणक्रियाने नहीं, पण तेवी क्रियाने करवानी क्षमताने ज प्रवृत्तिनिमित्त गणे छे तेम समजवुं जोइओ. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० अनुसन्धान-५५ थाय छे. ते सिवाय तेमां कोई ज विकल्प सम्भवित न होवाथी, पूर्वार्धनो 'अर्थनयोने आश्रयीने थती विचारणामां सात विकल्पोवाळो वचनपथ रचाय छे' आ ओक ज अर्थ सम्भवे छे. प्रश्न ओ रहे के कया अर्थनयने आश्रयी कयो भांगो सर्जाय ? टीकामां आनो खुलासो आम करवामां आव्यो छे : संग्रहनय तमाम स्थळे सत्ताअस्तित्व- ज दर्शन करे छे, माटे अस्तित्वनो प्रतिपादक प्रथम भांगो संग्रहनयने आश्रयीने रचाय छे. व्यवहारनय विशेषोनो ग्राहक छे अने कोई पण धर्मने विशेषथी- सूक्ष्मताथी जोवा जइओ तो आपेक्षिक नास्तित्व पकडाय. माटे बीजो भांगो व्यवहारनयने आधारे रचाय छे. त्रीजो अवक्तव्यभांगो ऋजुसूत्रने आभारी छे, कारण के सामान्य अने विशेष बन्नेनुं अकसाथे ग्रहण ऋजुसूत्रमा ज सम्भवे छे.१ आ त्रण भांगाना संयोजनात्मक अन्य चार भांगा पण मूळ भांगाना पोषक ते ते नयोना संयोजनथी सर्जाय छे. आम अर्थनयोने आश्रित अर्थगत धर्मोनी विचारणामां सप्तभंगी रचाती होवानुं निश्चित होवाथी आ गाथाना पूर्वार्धनो टीकामां ओक ज अर्थ देखाडवामां आव्यो छे : "एवं- पूर्वे देखाड्यो ते रीते सत्तविअप्पो- सात भांगावाळो वयणपहो- वचनमार्ग होइ- थाय छे अत्थपज्जाएअर्थनयोने आश्रित विचारणामां." ___ परन्तु, आ गाथानो उत्तरार्ध के जेने टीकाकार शब्दनयोने आश्रित विचारणापरक माने छे, तेना बे अर्थो तेओओ दर्शाव्या छे; जेमां पहेली वखते ओक अर्थमां वर्तती वाच्यता अने बीजी वखते ओक शब्दनिष्ठ वाचकताने केन्द्रमा राखवामां आवी छे. हवे, आपणे जो वाच्यताने लक्ष्यमां लइओ तो ओ पण आपेक्षिक धर्म होवाथी (जेमके घडो संस्कृत वगेरे भाषाओनी अपेक्षाओ घटपदवाच्य छे, पण अंग्रेजी वगेरे भाषाओनी अपेक्षाओ घडामां घटपदवाच्यता नथी) अमां पण उपरोक्त रीते सप्तभंगी रचावानी ज. पण टीकाकार भगवन्ते 'सविकल्प' अने 'निर्विकल्प' शब्दोने संगत करवा, शब्दनिरूपित वाच्यतामां, अनी आपेक्षिकताने अनुलक्षीने सप्तभंगी न घटावतां, बहु ज विशिष्ट रीते सप्तभंगी घटावी छे : साम्प्रतनयना मते घडो घट, कुम्भ, कलश व. घणा १. त्रीजो भांगो ऋजुसूत्रथी ज केम रचाय ? तेना वधु खुलासा माटे जुओ अनेकान्तव्यवस्थागत प्रस्तुत गाथार्नु विवरण. (पृ. २४७-२५०) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ९१ शब्दोथी वाच्य छे, ज्यारे समभिरूढ अने अवम्भूतना मते फक्त घट-शब्दथी ज वाच्य छे. माटे साम्प्रतमां घडानो व्यवहार सविकल्प छे, ज्यारे बीजा बे नयो माटे कोई विकल्प सम्भवित नहीं होवाथी घडानो व्यवहार निर्विकल्प छे.आने अनुसरीने पहेला बे भांगा आम रचाशे : 'स्याद् घटो घटवाचकयावच्छब्दवाच्योऽस्त्येव, स्याद् घटो घटवाचकयावच्छब्दवाच्यो नाऽस्त्येव । वाच्यताने अनुलक्षीने टीकाकारना मते त्रीजो भांगो आम सर्जाशे : साम्प्रतनयमते पुंल्लिंग 'दाराः' नपुंसकलिंग 'कलत्रम्' अने स्त्रीलिंग ‘पत्नी' शब्दथी उपस्थित थती व्यक्तिओ जुदी-जुदी छे. हवे आ विभिन्न व्यक्तिओ, के जे वास्तवमां तो एक ज छे, ते व्यक्तिओनो वाचक ओक शब्द कयो ? ओम पूछवामां आवे; तो साम्प्रतनय, भिन्नलिंगक शब्दोथी सूचवाती व्यक्तिओ कदी पण अक शब्दथी न सूचवाय तेवू स्वीकारतो होवाथी, अना मते तो तेवो शब्द संभवित ज नथी बनतो. अने तेने लीधे भिन्नलिंगक शब्दोथी वाच्य ओक व्यक्ति तेना माटे शब्दातीत थइ जवाथी (अथवा वधु साचं कही तो संभवती ज न होवाथी) अवक्तव्यभांगो रचाशे. आज रीते समभिरूढना मते भिन्नसंज्ञक व्यक्तिओनो वाचक ओक शब्द न होवाथी अने अवम्भूतना मते भिन्नक्रिया धरावती व्यक्तिओने उपस्थित करनार ओक शब्द न होवाथी ओ नयोना मते पण ते वास्तविक रीते अेक व्यक्तिने विशे अवक्तव्य भांगो रचाय छे. आ त्रण मूलभांगाना संयोजनने लीधे सर्जाता अन्य ४ भांगा ते ते नयोना संयोजनने आभारी छे ते स्वयं समजी शकाय तेम छे. उपर दर्शावेली शब्दनयोने आश्रित सप्तभंगी अर्थनिष्ठ अने शब्दनिरूपित ओवी वाच्यताने अनुलक्षीने छे, परन्तु शब्दनयने आश्रित भंगविचारणा वखते खरेखर तो शब्दनिष्ठ वाचकताने ज ध्यानमां लेवी जोइओ तेम, अर्थनय अने शब्दनयनी मूळभूत विभावनाने जोतां स्पष्ट समजाय छे. कारण के अर्थ (-द्रव्य के पर्याय)ने विषय बनावनारो वक्तानो अभिप्राय ज अर्थनयनो विषय छे. आ अभिप्राय अर्थने ज प्राधान्य आपे छे, कारण के ते स्वयं अर्थथी १. घडो साम्प्रतनयनी अपेक्षाओ घटवाचक घट, कुम्भ वगेरे तमाम शब्दोथी वाच्य छे ज, अवम्भूत अने समभिरूढनी अपेक्षाओ नथी ज - आवो आ भांगाओनो भावार्थ छे. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५५ उत्पन्न छे. शब्द तो अना माटे उत्पाद्य होवाथी गौण छे. ओथी उलटं, श्रोताने शब्दश्रवणथी जे प्रत्यय जन्मे छे ते शब्दनयनो विषय छे के जे पोताना उत्पादक शब्दने ज प्रधान गणे छे, पोतानाथी उत्पाद्य ओवा अर्थने नहीं. मतलब के श्रोताने शब्द सांभळीने जे बोध उत्पन्न थशे, ते केवो हशे ? केटली मात्रानो हशे ? ओ विशे विचारणाना प्रकारो ते शब्दनय छे. अने तेथी शब्दनयाश्रित विचारणा वखते शब्दथी थता बोधना कारणभूत शब्दनिष्ठ वाचकताने ज ध्यानमां लेवी जोइओ, नहीं के अर्थनिष्ठ वाच्यताने ते सुस्पष्ट छे. हवे आपणे शब्दनिष्ठ वाचकताने अनुलक्षीने विचारीशुं तो तेमां (-शब्दथी जन्य बोधमां) बे ज विकल्पोनो सम्भव छे, तेथी वधारे नहीं. केमके शब्दश्रवण पछी शब्दथी सूचवाता सामान्यने पकडी ओ सामान्यधर्म धरावता पदार्थनो बोध करीओ अथवा शब्दथी दर्शावाता विशेषने पकडी ओ विशेषथी विशिष्टनो ज बोध करीओ ओम बे ज मार्ग छे. आ सिवाय त्रीजो कोई विकल्प कल्पी पण शकातो नथी.२ अने जो त्रीजो विकल्प न होय तो तेनो प्रतिपादक भंग पण न होय तेथी बे ज भांगा बने छे. आमां जे सामान्य बोध छे, ते साम्प्रत अने समभिरूढना मते सम्भवे छे, कारण के तेओ, घटत्व के जलधारणयोग्यता जेवा सामान्य धर्मोथी विशिष्ट व्यक्ति, शब्दथी सूचवाय छे, तेम माने छे.३ ज्यारे जे विशेषबोध छे, ते अवम्भूतनयने आधारित छे, कारण के ते, जलधारणक्रिया जेवा विशेषोथी विशिष्ट व्यक्तिने ज, शब्दवाच्य गणावे छे. हवे "सविकल्प१. आपणने बोध थाय ते बोध बीजाने कराववा माटे शब्द प्रयोजीओ छीओ. तेथी शब्द ओ बोधथी उत्पाद्य- जन्माववा योग्य गणाय छे. २. अहीं सामान्य अने विशेष उभयथी विशिष्टनो बोध -अवो त्रीजो विकल्प केम न गणाव्यो? ओवो प्रश्न थइ शके, पण अनुं समाधान ओ छे के ओवो बोध सम्भवित तमाम अपेक्षाना संग्रहात्मक होवाथी प्रमाणवाक्य ज बनी जाय छे. अने नयाधारित वाक्यो ज भांगा तरीके गणाय छे, नहीं के ओ भांगाओना सर्वसमूहात्मक प्रमाणवाक्य. ३-४. "शब्द-समभिरूढौ सञ्जा-क्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः । एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवाऽर्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः ।" - टीकाकारना आ शब्दोनुं आq ज तात्पर्य जणाय छे. ५. सामान्य अने विशेषने अनुक्रमे सविकल्प अने निर्विकल्प तरीके ओळखाववाना हेतुओ माटे जुओ पृष्ठ ८६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ सामान्यनुं प्रतिपादक वचन पण सविकल्प कहेवाय छे अने निर्विकल्पविशेषनुं प्रतिपादक वचन पण निर्विकल्प गणाय छे. तेथी आम भांगा रचाशे : 'स्याद् वचनं सविकल्पमेव, स्याद् वचनं निर्विकल्पमेव'. ९३ हवे आमां ‘स्यादवचनमवक्तव्यमेव' ओवो त्रीजो भांगो केम न आवे ते जोइओ. आ भांगो त्यारे रचाय के ज्यारे वचन अवक्तव्यनुं प्रतिपादक बने. हवे वचन तो शब्दात्मक होय छे अने तेथी शब्दना विषयभूत पदार्थोनुं ज ते प्रतिपादन करी शके अने अवक्तव्य तो शब्दाभावनो विषय छे, मतलब के जेनो प्रतिपादक शब्द ज न होय अने अवक्तव्य कहेवाय छे, तो आ अवक्तव्यनुं प्रतिपादन शब्दात्मक वचन कई रीते करे ? अने जो आवा अवक्तव्यनुं प्रतिपादन अ न करी शके तो अमां अवक्तव्यभंग पण कई रीते रचाय ? उपर जे अवक्तव्यभंगना अभावनुं कारण देखाड्यं ते टीकामां दर्शावेला तर्कने अनुसारे छे. वास्तविक रीते पण आपणे जोइओ तो घट, पट, मठ जेवा शब्दोथी ते ते सामान्य के विशिष्ट वस्तुनो ज बोध थवानो छे. अवक्तव्यना बोधनो तेमां कोई अवकाश ज नथी. अने अवक्तव्य शब्दथी पण जे अवक्तव्यसामान्य के अवक्तव्यविशेषनो बोध थशे, ते पण 'स्याद वचनं सविकल्पमेव, स्याद् वचनं निर्विकल्पमेव' अ बे भांगामां समाइ जवानो छे. माटे शब्दनिष्ठ वाचकता परत्वे त्रीजा कोई भांगानो अवकाश ज नथी रहेतो. आ अवक्तव्यभंग केम ना संभवे ते देखाडनारां टीकाकारनां जे वचनो छे- 'अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवति ।" तेनुं तात्पर्य अ नथी के 'अवक्तव्यनो प्रतिपादक कोई शब्द मळतो न होवाथी शब्दनयाश्रित विचारणामां अ भंगने स्थान नथी.' पण तेनुं तात्पर्य से छे के 'शब्दनी वाचकताने पकडीने आपणे चालीओ तो अवक्तव्य के जे शब्दातीत वस्तु छे तेनी विचारणाने अवकाश ज नथी. अने से अवक्तव्यने जो अवक्तव्यशब्दथी वाच्य गणीओ तो ओ रीते ते वक्तव्य ज बनी जवाथी पहेला बे भांगामां ज ते समाइ जाय छे.' 44 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अनुसन्धान-५५ परन्तु, उपा. श्रीयशोविजयजीओ टीकाकारना शब्दोनुं अर्थघटन कर्यु छे के 'अवक्तव्यनो प्रतिपादक शब्द नथी मळतो माटे त्रीजो भांगो नथी संभवतो' अने आवा अर्थघटनने परिणाम अनेकान्तव्यवस्थामां उद्धृत प्रस्तुत गाथाना विवरणमां से प्रश्न उठाव्यो छे के "शब्दथी भावविषयक ज शाब्दबोध थाय, अभावविषयक नहीं -आवो कोई नियम तो छे नहीं. तो पछी 'अवक्तव्य' शब्दथी वक्तव्यताना अभावने विषय बनावनारो शाब्दबोध केम न थाय ? अने जो ओ थइ शकतो होय तो तेनो प्रतिपादक त्रीजो भांगो मानवामां शं वांधो?". आम व्यंजनपर्यायमां अवक्तव्यभंगना अभाव, टीकाकारे आपेलुं कारण वाजबी नथी ते दर्शावी तेनुं नवं कारण अq सूचव्युं छे के "अर्थनयाश्रित विचारणा करतां शब्दनयाश्रित विचारणामां आवतुं अवक्तव्य, मूळभूत रीते अक ज होवा छतां, शाब्दिक रीते जुदुं पडे छे. अने आ भिन्न अवक्तव्य, पहेला बे भांगानी वक्तव्यतामां ज पर्यवसित थाय छे. अने तेथी ज व्यंजनपर्यायमा स्वतन्त्र वीजा भांगानुं कथन करवानुं रहेतुं नथी." उपाध्यायजी भगवन्ते करेली आ समग्र चर्चा वास्तविकताने बदले नव्यन्यायनी जटिल परिभाषा अने तर्क पर आधारित होवाथी तेमज विस्तृत विवेचननी अपेक्षा राखती होवाथी घणी ज रसप्रद होवा छतां, अत्रे ओने दर्शाववानुं शक्य नथी.१ ढूंकमां, आ गाथाना उत्तरार्धना बे अर्थ छ : १. शब्दनिरूपित अर्थनिष्ठ वाच्यताने अनुलक्षीने- वंजणपज्जाए- शब्दनयाश्रित विचारणामां उण- वळी सवियप्पो- विकल्पोवाळो य- अने निव्वियप्पो विकल्पो वगरनो (वचनमार्ग छे, अने अने अनुसरीने सप्तभंगी छे.) २. शब्दनिष्ठ वाचकताने अनुलक्षीने- वंजणपज्जाए- शब्दनयाश्रित विचारणामां (तो) सवियप्पो- सामान्यनो प्रतिपादक य- अने निव्वियप्पो- विशेषनो प्रतिपादक (अम बे) उण- ज (वचनमार्ग छे, अने अने लीधे बे ज भांगा छे.) उपर आपणे वादमहार्णवटीकामां दर्शावेलो आ गाथानो भावार्थ विस्तृत रीते जोयो. आ भावार्थ विषयनिरूपणनी रीते चोक्कस साचो छे, पण मूळग्रन्थकार श्रीसिद्धसेनसूरिजीनो आ गाथाना उपन्यास पाछळ आवो ज आशय हशे ओम १. मूळ चर्चा माटे जुओ पृ. ११५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ मानवं मुश्केल छे. बल्के, नहीं होय अवं अनेक कारणे लागे छे – १. अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्याय शब्दो जैन शास्त्रोमां बहु जुदा अर्थमां? प्रयोजाया छे. आ शब्दोनो अनुक्रमे अर्थनय अने शब्दनय अवो अर्थ प्रायः बीजे कशे देखातो नथी. 'पर्याय' शब्दनो 'नय' अवो अर्थ कल्पवो ज अघरो छे. २. सप्तभंगी संग्रह, व्यवहार अने ऋजुसूत्र -अम त्रण अर्थनयोथी सर्जाय छे. माटे 'अर्थनयोने आश्रयी थती विचारणामां' सप्तभंगी थाय छे अम जणावयूँ होय तो 'अर्थनयो'ना वाचक शब्दने बहुवचन लगाडवू पडे. ज्यारे मूळगाथामां तो 'अत्थपज्जाए'मां अकवचन छे. 'वंजणपज्जाए' अंगे पण आ ज वात समजवी. आ बन्ने ठेकाणे सप्तमी विभक्तिनो अर्थ पण 'तदाश्रित विचारणा' ओवो क्लिष्ट करवो पडे छे. आवा अर्थपरक स्थाने बहुमान्य तो तृतीया के पंचमी छे. ३. बीजा अर्थ वखते सविकल्प अने निर्विकल्पनो अर्थ अनुक्रमे सामान्य अने विशेष थाय छे. आ शब्दो आवा अर्थमां भाग्ये ज बीजे कशे वपराया हशे. __ अर्थनयाश्रित विचारणामां जे सप्तभंगी सर्जाय छे तेनुं विवरण आ पूर्वेनी ५ गाथामां करवामां आव्युं छे. (१.३६-४०) अने तेना उपसंहाररूपे आ गाथानो पूर्वार्ध मूकायो छे. तो उत्तरार्धमां जेनी वात छे ते व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित सप्तभंगी के द्विभंगीनो उल्लेख के तेनुं विवरण आ पहेलानी के पछीनी गाथाओमां केम नथी मळतुं ? अर्थपर्यायना भांगा माटे ५ गाथा होय तो व्यंजनपर्याय माटे ओक पण नहीं ? आ वात ओम नथी सूचवती के आ पूर्वेनी गाथाओमांथी अन्य कोई रीते व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित भांगा शोधवा प्रयास करवो जोइ ? ५. टीकामां दर्शावायेलुं व्यंजनपर्यायमां सविकल्पत्व-निर्विकल्पत्व, त्रीजा भांगानो सद्भाव-अभाव वगेरे बधुं ज कठिन तर्कजाळ पर आधारित छे. श्रीसिद्धसेनसूरिजीना समयमां तो वास्तविकता के वस्तुस्वरूपनी विचारणा ज मुख्य बनती हती. आ रीते युक्तिजाळ पर आधारित प्रमेयोनुं १. आ अर्थ माटे जुओ पृ. १०७-१०८ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ६. अनुसन्धान-५५ निरूपण त्यारे महदंशे नहोतुं थतुं. माटे वास्तविकतानी भूमि पर आधार राखनारो भावार्थ होवो जोइओ. सौथी महत्त्वनी वात तो ये छे के आ गाथानो आवो अर्थ करवा माटे अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने लगतुं प्रकरण ज्यांथी शरु थाय छे ते १.३० गाथामां पण आ शब्दोनो अर्थ अनुक्रमे अर्थनय अने शब्दनय करवो पडे छे. अने अने लीधे आ प्रकरणनी अर्थसंगति केटली कठिन बने छे ते अ ज गाथामां ' अर्थपर्याय अभिन्न छे अने व्यंजनपर्याय तो भिन्न - अभिन्न बन्ने छे' आ वातनी संगतिनो प्रयास जोतां समजाय छे. १ आ कारणोने लीधे आ गाथानुं मूळकारने सम्मत तात्पर्य जुदुं होवानुं समजाय छे. ते शुं होइ शके ते आगळ विचारीशुं. हवे आपणे द्रव्यगुणपर्यायरास - स्तबकमां उपाध्यायजी भगवन्ते आ गाथानुं जे तात्पर्य देखाड्युं छे ते जोइशुं. त्यां आ गाथानुं उद्धरण अक विशिष्ट प्रश्नना सन्दर्भे थयुं छे. प्रश्न से छे के 'ज्यां धर्मसम्बन्धित - धर्म विषेनी अपेक्षाओ बे कोटिमां समाइ जाय (जेमके घटनिष्ठ अस्तित्व सम्बन्धे, स्वरूपादि अस्तित्वपोषक अने पररूपादि नास्तित्वपोषक) त्यां तो परिपूर्ण बोध सात भांगामां समाइ जाय छे, परन्तु ज्यां अपेक्षाओ बे करतां वधारे कोटिमां समाय छे, त्यां तो सात करतां वधारे ज भांगा थवाना. त्यारे सप्तभंगीनो नियम साचववा शुं करवुं ?" उपाध्यायजीओ आ बाबतने सम्बन्धित शास्त्रीयचर्चा पण उद्धृत करी छे. अत्रे आ चर्चानो भाव जोइशुं. " शिष्य : प्रदेश, प्रस्थक, वसति वगेरेना विषयमां पांच-छ नयोनी विभिन्न मान्यता छे.२ हवे तेमां अक नयनी अपेक्षाओ जे प्रदेशादि छे ते बीजा १. त्यां आ वातनी संगति आम समजाववामां आवी छे : "अर्थपर्याय अभिन्न होय छे, कारणके ते असत्, अद्रव्य अने अतीत - अनागतथी व्यवच्छिन्न सेवा अर्थना पर्यायरूप होय छे; अने अर्थनयो आवा अभिन्न अर्थपर्यायना ग्राहक होवाथी अर्थगत विभाग अभिन्न छे. ज्यारे व्यंजनपर्याय- शब्दनय तो भिन्न- अभिन्न बन्ने छे, कारण के वस्तु तो अनेक शब्दोथी पण वाच्य होय छे (-साम्प्रतमते) अने अक शब्दथी ज वाच्य होय तेम पण बने छे (-समभिरूढ, अवम्भूतमते). " आ संगति परत्वे अनेक प्रश्नो सर्जाइ शके तेम छे. २. आ मान्यताओ 'नयरहस्य' मां सरस रीते देखाडवामां आवी छे. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ९७ नयोनी अपेक्षाओ नथी. तेथी धारोके पांच नयनी भिन्न मान्यता होय तो दश भांगा तो अना ज थाय. तेमां अवक्तव्यभंग अने संयोगीभांगा उमेरो तो भंगसंख्या केटली बधी वधी जाय ? अने तो त्यां सप्तभंगीनो नियम कई रीते सचवाशे ? __ "गुरु : त्यां ओकनयने सम्मत अर्थने मुख्य गणवो अने अन्यनय सम्मत अर्थाने गौण बनाववा. पछी जेने मुख्य बनाव्यो होय तेना आपेक्षिक अस्तित्वनो प्रतिपादक प्रथमभंग अने तेना अन्यनयोना मते निषेधनो द्वितीयभंग करवो. बधा नयोनी अपेक्षाओ अवक्तव्य भंग तो सर्जावानो ज छे अने आ त्रणना संयोगात्मक ४-७ भांगा पण आपोआप रचावाना छे. आ रीते अक सप्तभंगी थशे. पछी बीजा नयने सम्मत अर्थने ते ज रीते, मुख्य बनावी तेनी सप्तभंगी करवी. आ रीते अनुक्रमे सर्व नयोनी सप्तभंगी करवी. अटले परिपूर्ण बोध पण थइ जशे अने सप्तभंगीनो नियम पण सचवाशे." उपा. श्रीयशोविजयजीओ आ समाधाननो निषेध तो नथी कर्यो, पण पोताना तरफथी नवं समाधान सूचव्युं छे – “शास्त्रोमां प्रमाणवाक्य, लक्षण ओ देखाडवामां आव्युं छे के 'जे वाक्यमां सकलनयो, तात्पर्य समाइ जाय छे ते प्रमाणवाक्य.' हवे, घटगत अस्तित्वादिने लगता सात विकल्पो सम्भवे छे अने तेथी ते सातेना प्रतिपादक सप्तभंग्यात्मक महावाक्यने ज प्रमाणवाक्य गणवामां आवे छे. पण अनुं तात्पर्य ओ नथी के बधे सात भांगा सर्जावा ज जोइओ. कारण के ओछा भांगे पण जो पूर्ण बोध थइ जाय तो ओटला भांगाना समूहने ज प्रमाणवाक्य कहेवामां शुं वांधो ? तेथी प्रदेशादि स्थळे जेटला नयोनुं विभिन्न मन्तव्य होय, ते सघळां मन्तव्योने स्यात्कारथी चिह्नित करी दइओ अने 'स्यात् षण्णां प्रदेशः, पञ्चानां प्रदेशः, पञ्चप्रकारः प्रदेशः....' अम तेओनो उपन्यास करी दइओ तो ओ ओक ज भांगामां सघळा नयो, मन्तव्य समाइ जवाथी आ ओक ज वाक्य प्रमाणवाक्य थइ शके छे. अने सात भांगाथी वधारे भांगा न थवानो नियम पण सचवाइ जाय छे." हवे आ समाधाननी सामे ओ प्रश्न उपस्थित थाय छे के 'परिपूर्ण बोध सप्तभंगीथी ज थाय' ओ नियमनो अर्थ फक्त ओ ज नथी के 'सातथी वधु भांगा न थाय', परन्तु अ पण छे के 'परिपूर्ण बोध माटे सात भांगा होवा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ अनुसन्धान-५५ अनिवार्य छे.' अने तमे तो अकभांगे ज परिपूर्ण बोध देखाडो छो. तो मां विरोध नथी ? उपाध्यायजीओ आनुं समाधान ओम दर्शाव्युं छे के सातथी ओछा भांगे पण परिपूर्ण बोध मान्य ज छे. आनी साबितीमां तेओओ सन्मतितर्कनी प्रस्तुत गाथा उद्धृत करी छे. अने तेमां व्यंजनपर्यायमां बे भांगे पण पूर्ण बोध देखाडायो छे ओम सूचव्युं छे. हवे आपणे तेओओ त्यां आ गाथानुं जे विवरण कर्तुं छे ते जोइशुं : अर्थपर्याय ओटले अस्तित्व - नास्तित्व वगेरे अर्थनिष्ठ धर्मो अने व्यंजनपर्याय ओटले अर्थनिष्ठ घटकुम्भादिशब्दनिरूपित वाच्यता. ‘सप्तभंगीरूप वचनमार्ग अर्थपर्यायने विषे थाय छे.' ओवो पूर्वार्धनो ओक ज अर्थ छे. ज्यारे उत्तरार्धना बे अर्थ छे : ओक तो, वाच्यता पण आपेक्षिक धर्म छे, ओटले तद्विषयक विचारणामां पण तेना आपेक्षिक अस्तित्व - नास्तित्वना प्रतिपादक पहेला बे भांगा मळे- १. सविकल्प - विधिरूप १, २. निर्विकल्प - निषेधरूप. भांगानो आकार आवो थशे- 'स्याद् घटो घटपदवाच्य एव स्याद् घटो घटपदावाच्य एव'. त्यारबाद त्रीजो अवक्तव्य भांगो नहीं मळे, कारण के अवक्तव्यने शब्दना विषयभूत कहीओ तो विरोध थाय. २ अथवा अन्य रीते पण घटादिपदवाच्यतारूप व्यंजनपर्यायमां त्रीजा भंगनो अभाव घटे छे. ते आ रीते- साम्प्रत अने समभिरूढना मते आ वाच्यता सामान्यने आश्रित छे, तेथी आ बे नयोना मते सविकल्प वचनमार्ग छे, अने तत्प्रतिपादक प्रथमभंग छे. अने अवम्भूतना मते आ वाच्यता विशेषने आश्रित छे, तेथी ते मने निर्विकल्प वचनमार्ग छे, अने तत्प्रतिपादक द्वितीयभंग छे. हवे, आ सिवाय शब्दवाच्यताने जोनारो अन्य कोई नय तो छे नहीं अने १. सविकल्पनो अर्थ ‘विधि' केवी रीते करवो ते समजवुं मुश्केल छे. अ ज रीते निर्विकल्पनो अर्थ 'निषेध' समजवो पण मुश्केल छे. २. अवक्तव्य ओटले शब्दाभावनुं विषयत्व. माटे अवक्तव्यने जो शब्दनो विषय कही तो विरोध अवश्य थाय. पण 'स्यादवक्तव्यो घटः' अम घटशब्दवाच्यताना अस्तित्व - नास्तित्वने आश्रित अवक्तव्यतानुं घटमां प्रतिपादन करवामां आ विरोध कई रीते लागु पडे ते समजवुं मुश्केल छे. कदाच शब्दवाच्यताने आश्रित विचारणामां शब्दाभावना विषयरूप अवक्तव्यतानो समावेश करवो विरुद्ध छे ओवो भाव अत्रे होइ शके. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ शब्दवाच्यताने जोनारा नयोनी वात पहेला बे भंगमां समाइ जाय छे. तेथी व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भंग सर्जातो नथी. अने बे भांगे पण शब्दनयाश्रित विचारणाने लगतो पूर्ण बोध थइ जाय छे. ओटले ओज रीते प्रदेशादि स्थळे पण अक भांगे पूर्ण बोध मानी लइओ तो वांधो नथी. स्तबकगत आ विवरण कया कया मुद्दे वादमहार्णवटीकाथी भिन्नता धरावे छे ते तपासीओवादमहार्णव द्रव्यगुणपर्यायरास-स्तबक १. अर्थपर्याय- अर्थनय १. अर्थपर्याय-अर्थगत अस्तित्व नास्तित्वादि धर्मो. २. व्यंजनपर्याय- शब्दनय २. व्यंजनपर्याय घटकुम्भादिशब्दवाच्यता ३. सविकल्प- सामान्य/विकल्पोनो ३. सविकल्प- विधि सद्भाव ४. निर्विकल्प- विशेष/विकल्पोनो ४. निर्विकल्प- निषेध अभाव ५. व्यंजनपर्यायमां सप्तभंगी अने ५. व्यंजनपर्यायमां द्विभंगी ज शक्य द्विभंगी बन्ने शक्य छे. छे. ६. उत्तरार्धमां अनुक्रमे अर्थनिष्ठ ६. उत्तरार्धमां अनुक्रमे अर्थनिष्ठ वाच्यता वाच्यता अने शब्दनिष्ठ वाचकता अने शब्दाश्रित नयमार्ग पर विचार पर विचार करवामां आव्यो छे. करवामां आव्यो छे. ७. अवक्तव्यना शब्दविषय बनवानी ७. आ आपत्ति अर्थनिष्ठ वाच्यतानी आपत्ति शब्दनिष्ठ वाचकताना विचारणामां लागु पडे छे. विचार वखते लागु पडे छे. वादमहार्णवगत आ गाथानो भावार्थ मूळकारना आशयथी भिन्न होइ शके ते समजवा जे कारणो देखाड्यां छे (पृ. ९५), तेमांथी बीजा क्रमांकना कारण सिवाय बीजां बधां आ स्तबकगत विवरण माटे पण लागु पडे छे. अने तेथी लागे छे के श्रीसिद्धसेनसूरिजीने सम्मत आ गाथानो भावार्थ प्रस्तुत विवरण करतां जुदो ज होवो जोइओ. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-५५ हवे आपणे सप्तभंगीविंशिका (-अभयशेखरसूरिजीकृत) गाथा १५-१९ (सविवेचन)मां दर्शावायेलो आ गाथानो भावार्थ तपासीशं. आ भावार्थ आम तो द्रव्यगुणपर्यायरास-स्तबकगत विवरणमांना प्रथम अर्थने ज अनुसरे छे, छतां त्यां ओक नवी वात ओ छे के तेमां व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भंग केम न आवे तेनी अतिविस्तृत चर्चा करवामां आवी छे, के जे मुख्यत्वे वास्तविकताने बदले कल्पना पर आधारित छे. आ चर्चाने तपासवा माटे तेनुं सम्पूर्ण उद्धरण तो शक्य नथी, माटे आपणे तेना मुख्य मुद्दाओ ज जोइशं. आ मुद्दाओ तारवती वखते चर्चाना हार्दने हानि न पहोंचे तेनुं पूरतुं ध्यान राखवामां आव्युं छे. "अर्थपर्याय अटले वस्तुमां जेने लीधे कोइक क्रिया करवानुं सामर्थ्य आवे ते धर्मो- मृन्मयत्व, वृत्ताकार, रक्तवर्ण वगेरे अने व्यंजनपर्याय अटले ते ते पदार्थमां रहेली ते ते शब्दथी निरूपित वाच्यता. आ बन्ने पर्यायो घणा बधा कारणे परस्पर अत्यन्त भिन्न छे. अर्थपर्यायमां सप्तभंगी सर्जाय छे अने व्यंजनपर्यायमां विधिरूप अने निषेधरूप अम बे भांगा ज थाय छे. "हवे आ व्यंजनपर्यायोमां त्रीजो भांगो केम न आवे तेनां त्रण कारणो छे : १. सप्तभंगी हमेशां विशदबुद्धि श्रोतानी अपेक्षाओ ज प्रतिपादित थाय छे, मन्दबुद्धिनी अपेक्षाओ नहीं. हवे विशदबुद्धि श्रोता पोतानी मेधाथी ज स्वयं अटलुं समजी ले छे के 'घडो काळो होय तो लाल न होय, चोरस होय तो गोळ न होय.' आथी वस्तुस्वरुपना अंशभूत ओक धर्मना बे विकल्पो' विशे तेने संशय थतो नथी. पण बे धर्मना बे विकल्पो विशे तेने संशय थई शके छे. मतलब के 'घडो लाल अने काळो छ ?, घडो चोरस अने गोळ छे ?' आवा संशयो तेने न थाय, पण 'घडो लाल अने चोरस छे ? घडो काळो अने गोळ छे ?' आवा ज संशयो तेने संभवे. आ संशयमां जो बन्ने विकल्पो स्वरूप (-घटनिष्ठ) होय तो जवाबमां 'स्यादस्त्येव' भांगो आवे. जो बन्ने पररूप होय तो 'स्यान्नाऽस्त्येव' भांगो आवे. जो ओक स्वरुप होय अने ओक १. संस्थान, वर्ण, क्षेत्रजन्यत्व, उपादानद्रव्य वगेरे ओक वस्तुना मूळभूत अंशो छे. अने चोरस गोळ, लाल-काळो, अमदावादी-खंभाती, माटीनो-सोनानो वगेरे ते ओक ओक अंशना विकल्परूप छे. आ विकल्पोमांथी अक साथे ओक वस्तुमां ओक ओक अंशनो ओक ज विकल्प संभवे - आवी व्यवस्था अत्रे स्वीकारवामां आवी छे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ १०१ पररूप होय तो 'स्यादस्त्येव स्यान्नाऽस्त्येव च' भांगो आवे. अने आवा बे विकल्पो के जेमां ओक स्वरूप होय अने अेक पररूप होय अने ओ बे विकल्पोने सांकळीने अेक विकल्प जेवो बनावी प्रश्न पूछवामां आवे, जेमके काळा अने गोळ घडाने उद्देशीने 'घडो लालगोळ छे ?', तो ओ ओक विकल्प फक्त स्वरूप पण नहीं होवाथी अने फक्त पररुप पण नहीं होवाथी 'स्यादवक्तव्यमेव' भांगो जवाबमां आवे. ढूंकमां, सप्तभंगीना ३-७ भांगा माटे विविध अंशो होवा अनिवार्य छे. "हवे, अर्थपर्यायो तो अनेक अंशात्मक होय छे (जेमके संस्थान, वर्ण, रस, क्षेत्रजन्यत्व व.) अने तेथी तेमां आ भांगा सम्भवे. पण व्यंजनपर्याय तो वाच्यतारूप ओक ज अंशात्मक होवाथी, अने बे विकल्पोवाळा प्रश्न माटे बे अंश जरूरी होवाथी तेमां बे विकल्पोवाळो प्रश्न ज संभवतो नथी (जेमके घडो घटपदवाच्य अने पटपदवाच्य छे ?) अने जो ओ न संभवे तो जेना माटे बे अंशोना बे विकल्पोवाळो प्रश्न होवो अनिवार्य छे ओवो अवक्तव्यभंग पण त्यां केवी रीते रचाय ? “२. अर्थपर्यायो जे विविध अंशोमां समाय छे ते विविध अंशोमांथी कोई बे के तेथी वधु अंशोना विशिष्ट विकल्पो साथेना पदार्थनी जरूर पडे तेम बने छे. जेमके कोइक प्रयोजन काळा (-वर्णधर्मनो विकल्प) अने गोळ (-संस्थानधर्मनो विकल्प) घडाथी ज सरे तेम होय. अने माटे आपणे प्रश्न पण पूछवानो थाय के 'घडो गोळकाळो छे ?' अने घडो लालगोळ होय तो जवाब आपवानो थाय के 'स्यादवक्तव्यमेव'. पण व्यंजनपर्याय तो स्वयं अक ज अंशरूप छे. तेथी तेमां कोई दिवस बे विकल्पोनुं प्रयोजन ज ऊभुं नथी थतुं. अने जो ओ न थाय तो बे विकल्पोवाळा प्रश्नना अभावे अवक्तव्यभांगो पण कई रीते रचावानो ? “३. व्यंजनपर्यायमां तमाम प्रश्नो अने उत्तरो वाच्यतामां पर्यवसान पामे छे. तेथी 'घटोऽस्ति न वा ?' ओ प्रश्ननो व्यंजनपर्यायसम्बन्धे मतलब थाय 'घटपदवाच्योऽस्ति न वा ?'. अने भांगा पण आम रचाय : 'स्यादस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यान्नाऽस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यादवक्तव्य एव घटपदवाच्यः...' आमां अवक्तव्य भांगामां अक बाजु घटपदवाच्य कहेवू अने बीजी बाजु Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-५५ अवक्तव्य कहेवं - आमां स्पष्ट विरोध छे. उपाध्यायजी महाराज 'अवक्तव्य शब्दविषय कहीइं तो विरोध थाइ' आ पंक्तिथी आवो ज भाव सूचवे छे. माटे आवो विरोध आवतो होवाथी पण व्यंजनपर्यायमां त्रीजो भांगो न थाय." __ आ समग्र चर्चा प्राथमिक दृष्टिले आपणने प्रभावित करी दे तेम छे. छतां आपणे सूक्ष्मताथी विचारीशुं तो अमां आपणने ठेकठेकाणे त्रुटि देखाया वगर नहीं रहे. जेमके अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय ओटले दीर्घकालीन पर्याय -आवी सर्वत्र प्रसिद्धि छे. तो शा माटे अनाथी जुदा पडीने 'अर्थक्रियाकारित्वना निमित्तभूत पर्यायो ते अर्थपर्यायो' अने 'वाच्यताओ? अटले व्यंजनपर्यायो' ओवी व्याख्या बांधवी जोइ ? आम करवामां कयो तर्क ? आ रीते व्याख्या बांधवामां सत्त्व, ज्ञेयत्व व. पर्यायो के जे अर्थगत विशिष्ट अर्थक्रियाना जनक पण नथी अने वाच्यतारूप पण नथी, ते बन्ने कोटिमांथी बहार नीकळी जाय छे. तो आ पर्यायोमां भंगव्यवस्था कई रीते समजवी ? ओ भंगव्यवस्था जे पण होय ते, सन्मतितर्कमां तो अनुं निरूपण नथी अर्बु ज आना परथी सिद्ध थाय, तो अने सन्मतितर्कनी त्रुटि गणवी ? वळी, अस्तित्व, रक्तत्व वगेरे पर्यायोनी अपेक्षाओ, वाच्यतानी जेम ज्ञेयता वगेरे पण अनेक-अनेक भिन्नताओ धरावे ज छे. तो शा माटे ओवा पर्यायोथी वाच्यताने ज अलग करवी जोइओ अने अमां खास भंगव्यवस्था देखाडवी जोइओ ? ज्ञेयता वगेरेने अंगे केम नहीं ? धारोके, आ बधी चर्चा न करीओ तो पण, अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायनो उपरोक्त अर्थ कर्या पछी, 'अर्थपर्याय अभिन्न होय छे अने व्यंजनपर्याय भिन्न-अभिन्न बन्ने होय छे.'२ आवा सन्मतितर्कना वचननी संगति करवी शक्य खरी ? आ चर्चानी सौथी मोटी त्रुटि तो ओ छे के अमां करायेलुं सप्तभंगीनुं निरूपण सप्तभंगीनी शास्त्रीय अने सर्वमान्य विभावनाथी सदन्तर विपरीत छे. सप्तभंगीनुं प्रणयन शा माटे थाय, कई रीते थाय, अमां धर्म, धर्मी अने अपेक्षाओनी व्यवस्था कई होय ? - आ बधुं प्रमाणनयतत्त्वालोकथी मांडीने १. उपाध्यायजी भगवन्ते केटलाक स्थळे व्यंजनपर्यायनो अर्थ शब्दनिरूपितवाच्यता देखाड्यो छे तेनुं वास्तविक तात्पर्य शुं छे ते माटे जुओ पृ. १०९ २. अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणवियप्पो – सन्मति १.३० Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ १०३ सप्तभंगीप्रभा जेवा अनेक-अनेक ग्रन्थोमां बहु ज सूक्ष्मताथी निरूपायुं छे. पण आ ग्रन्थो जाणे दुनियामां छे ज नहीं ले रीते सप्तभंगीविंशिकामां सप्तभंगीनुं निरूपण थयुं छे. आ निरूपण अवश्य परीक्षणीय छे, पण विस्तारना भयथी अत्रे ते न करतां फक्त अवक्तव्यभंगना अभावनां जे त्रण कारणो दर्शाव्यां छे तेनी ज विचारणा करीशुं. ११. सप्तभंगीना प्रणयन माटे दरेक वखते प्रश्न जरूरी नथी होता. कारण के प्रश्न संशय होय तो ज संभवे छे, ज्यारे सप्तभंगी तो संशयनी जेम अज्ञान अने विपर्ययना निरास माटे पण रचाय छे.२ माटे प्रश्न न संभववा मात्रथी त्रीजा भंगनो अभाव मानवो शक्य नथी. तो पण धारो के मानी लइ के प्रश्न संभवे तो ज तेना जवाबरूप भांगो संभवे. तो पण ओ रीते तो घटपदवाच्यता जेवा धर्मोमां त्रीजा भांगानो अभाव नथी ज घटवानो. कारण के अवक्तव्यभांगा माटे संभवती जिज्ञासाथी जन्य प्रश्नमां बे विकल्पोनो उल्लेख होतो ज नथी; परन्तु अेक धर्मीगत ओक धर्मना अस्तित्व अने नास्तित्व बन्नेनी पोषक ओक ओक अपेक्षानो उल्लेख होय छे. जेमके, कोई व्यक्तिविशेषने उद्देशीने अर्बु कथन करवामां आवे के 'ते आ जन्मनी अपेक्षाओ मनुष्य छे, पण गया जन्मनी अपेक्षाओ अमनुष्य (-देवादि) छे.' तो प्रश्न थशे के बन्ने जन्मनी अकसाथे अपेक्षा राखीओ तो ते मनुष्य गणाय के न गणाय ? आमां जोइ शकाशे के धर्मी- व्यक्ति ओक ज छे, संशयनो विषयभूत धर्म- मनुष्यत्व पण अक ज छे, फक्त अपेक्षा ज बे छेआ जन्म अने गयो जन्म. हवे, आ जन्मनी अपेक्षाओ ते मनुष्य पण छे अने गया जन्मनी अपेक्षाओ अमनुष्य पण छे, तेथी बन्ने जन्मनी अपेक्षाओ ते व्यक्ति जे छे तेने जणावनार कोई शब्द न होवाथी अवक्तव्य ज कहेवू पडे. अने ते ज त्रीजो भांगो छे. आमां जोइ शकाशे के त्रीजा भांगा माटे प्रश्नमा मात्र धर्मना अस्तित्व अने नास्तित्व बनेने सम्बन्धित अलग-अलग अपेक्षाओनो उल्लेख १. पृष्ठ १००-१०१ परनां कारणोनो आ क्रमांक छे. २. किञ्च वाक्यस्य परार्थाधिगमफलकत्वेन यथा परस्य संशयनिवृत्त्यर्थं प्रयोक्तव्यत्वं तथा परस्या ऽज्ञाननिवृत्त्यर्थमपि... तत्र वादिनां विप्रतिपत्तयोऽपि सप्त, तन्निवर्त्तकवाक्यान्यपि सप्तेत्येवंरीत्याऽपि सप्तभङ्गी सूपपादा - सप्तभङ्गीप्रभा-पृ. ६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-५५ जरूरी छे; तेथी चोक्कस समूहोमां धर्मोने गोठववा, तेमांथी अक समूहगत अक धर्मनो अने कुल बे धर्मो-जेमां ओक स्वरुप होय अने ओक पररूप-नो उल्लेख प्रश्नमां जरूरी मानवो वगेरे व्यर्थ कल्पना ज छे. उपर दर्शावेली रीते जोइओ तो वाच्यतामां पण त्रीजो भांगो घटे ज छे. जेमके घडो घटपदवाच्य त्यारे ज बने छे के ज्यारे अने 'घट' पदी ओळखवो अवुं नक्की कर्तुं होय, १ अ सिवाय नहीं, माटे ज अंग्रेजी भाषानी अपेक्षाओ घडो घटपदवाच्य नथी. तो जे अपेक्षाओ घडामां घटपदवाच्यता छे अने जे अपेक्षाओ नथी, ते बन्ने अपेक्षाओ ओकसाथे जोइओ तो आ वाच्यताने आश्रित अवक्तव्यता आववानी ज, अने तत्प्रतिपादक त्रीजो भांगो मळवानो ज. ट्रंकमां, शब्दनिरूपितवाच्यताने जो धर्म तरीके लइने विचारीओ तो अमां सप्तभंगी ज रचाय छे. माटे ओ रीते व्यंजनपर्यायमां बे ज भांगा घटाववा सम्भवित नथी. २. अज्ञानादि दूर करवा अ ज सप्तभंगीनुं प्रयोजन छे. तेनी प्ररूपणामां 'चोरस अने काळा घडानी जरूर पडवी' सेवा व्यावहारिक प्रयोजनोनी अपेक्षा ज नथी होती. वास्तवमां सप्तभंगीना प्रणयनमां आवां व्यावहारिक प्रयोजनोनी अपेक्षा राखवामां ‘सप्तभंगीनुं क्रमशः आ ज रीते निरूपण थाय, अने निरूपण साते सात भांगानुं थाय' आवा केटलाक नियमो ज नथी सचवाता. कारण के व्यवहारमां तो जेवा घडानी जरूर पडी तेवा घडा माटे पूछ्युं अने जेवो घडो हतो तेवो जवाब आपी दीधो भेटले वात पूरी थइ जाय छे. सप्तभंगीनुं खरेखर प्रयोजन जो वास्तविक बोध गणीओ तो ज आ बधी प्ररूपणा करवानी रहे छे. माटे, व्यावहारिक प्रयोजनना अभावे वाच्यतामां त्रीजा भंगनो अभाव घटाववो बिल्कुल वाजबी नथी. ३. 'घटपदवाच्योऽस्ति न वा ?' जेवा प्रश्नोने वाच्यताविषयक गणी ज केवी रीते शकाय ? कारण के ओमां घटपदवाच्य धर्मीमां अस्तित्वनी शंका छे. वाच्यताने संशयनो विषय बनावतो प्रश्न तो आम निरूपाय : 'अयं घटपदवाच्यो न वा ?' अने आ प्रश्नने अनुलक्षीने सप्तभंगी पण आम रचाय: 'स्यादयं घटपदवाच्य एव स्यादयं घटपदावाच्य एव स्यादयमवक्तव्य एव...' १. वधु साची रीते कहेवुं होय तो ओम कहेवाय के घडामां घटपदनो संकेतग्रह कर्यो होय. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ हवे आमां जेने घटपदथी वाच्य बनावीओ छे तेने त्यारे ज अवक्तव्य कहेवानी वात ज क्यां आवी ? १०५ वास्तवमां व्यंजनपर्यायने लगती आचार्य भगवन्तने सम्मत भंगप्रणालीमां पण 'स्यादस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यान्नाऽस्त्येव घटपदवाच्यः, स्यादवक्तव्य एव घटपदवाच्यः....' अवुं कथन करवामां त्रीजा भांगामां जेने घटपदवाच्य कहीओ तेने ज अवक्तव्य कहेवामां वांधो शुं ? जेम भिन्नतानी सप्तभंगीमां अवक्तव्यत्व भिन्नताना अस्तित्व-नास्तित्वने आश्रित छे, अकत्वनी सप्तभंगीमां ओकत्वना अस्तित्व-नास्तित्वने आश्रित छे, तेम प्रस्तुत स्थळे अस्तित्वना अस्तित्वनास्तित्वने आश्रित छे. तो जेमां स्वनिष्ठ अने घटपदथी निरूपित वाच्यतानुं कथन करीओ तेमां ज अस्तित्वने आश्रित अवक्तव्यतानुं कथन करीओ तो मां विरोध क्यां आव्यो ? ट्रंकमां, आ रीते पण व्यंजनपर्यायमां त्रीजा भांगानो अभाव घटाववो सम्भवित नथी. आम, आ गाथानो अभयशेखरसूरिजीओ कल्पेलो भावार्थ वास्तविकताथी घणो दूर छे ते समजी शकाय तेवुं छे. हवे आ गाथाना तात्पर्यनी विचारणा माटेना उपलब्ध साधनोमांथी ओक ज वस्तु आपणे जोवानी बाकी रहे छे अने ते छे पं. श्रीसुखलालजी कृत सन्मतितर्क-विवेचन. आम तो नयोपदेश (-उपा. श्रीयशोविजयजी) सप्तभंगीप्रभा (-श्रीविजयनेमिसूरिजी ) जेवा ग्रन्थोमां पण आ गाथानुं विवरण मळे ज छे. पण ते टीकानां वचनोनो अनुवादमात्र होवाथी टीकानी चर्चामां ज तेनी चर्चा पण समाइ जाय छे. जो के पं. श्रीसुखलालजीओ करेलुं आ गाथानुं विवेचन पण टीकाने ज अनुसरे छे, तेथी ते विशे विशेषथी चर्चा आवश्यक नथी ज. पण आ विवेचनमां (पृ. २२३) बे वातो बहु महत्त्वनी छे : छे १. आ गाथानुं विवेचन लख्या पछी तेना पर तेओओ टिप्पणी करी "अहीं प्रस्तुत गाथानो जे भाव लख्यो छे ते ज ग्रन्थकारने विवक्षित छे के नहि अ घणुं विचार्या छतां नक्की करी शकायुं नथी. टीकाकार श्री अभयदेवसूरि अने श्रीयशोविजयजी उपाध्याये पण आ गाथानो अर्थ चोक्कस नथी लख्यो. तेमणे पण मात्र कल्पनाओ दोडावी छे. माटे विचारको अ परम्परा जाणवा प्रयत्नशील थवुं." Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५५ २. सविकल्प अने निर्विकल्पनी ओक नवी ज विभावना तेओओ रज़ करी छे. आ विभावना स्पष्टतः अर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित आ समग्र प्रकरणने, अर्थपर्याय अटले अर्थनय अने व्यंजनपर्याय ओटले शब्दनय -ओम टीकासम्मत अर्थने बदले, अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय अटले दीर्घकालीन पर्याय -ओवा प्रचलित अर्थना सन्दर्भ मूलववाने आभारी छे. आ विभावना छे – “पुरुषशब्दनो व्यंजनपर्याय' पुरुषत्व अने घटशब्दनो घटत्व ओ बन्ने सदृशपर्यायप्रवाहरूपे ओक ओक होवाथी निविकल्पसामान्यरूप छ; अने दर क्षणे नवा नवा उत्पन्न थता पर्याय द्वारा भिन्न थता होवाथी सविकल्प- विशेषरूप पण छे.३" आ विभावनाने आधारे जो आपणे थोडोक वधु विचार करीओ तो कदाच श्रीसिद्धसेनसूरिजीना आ गाथा रचवा पाछळना हार्दने पामी शकीओ पर्याय बे प्रकारना संभवे छे. ओक तो द्रव्य, अने तेना मूळभूत गुणोनी परावृत्तिमां निमित्त बननारी परिणामपरम्परानो जे अन्तिम अविभाज्य अंश होय १. वास्तवमां व्यंजनपर्याय अर्थनो- अर्थनिष्ठ ज होय छे, शब्दनो नहीं. शब्दथी तो ओ निरूपित __थाय छे. २. वास्तवमा निर्विकल्पनो अर्थ विशेष अने सविकल्पनो अर्थ सामान्य थाय छे. वादमहार्णवमां पण ओम ज छे. ३. आ पछी तेओओ व्यंजनपर्यायमां अवक्तव्यभांगो केम न आवे तेनुं कारण आवं दर्शाव्यु छ – "ओ बन्ने पर्यायो (-पुरुषत्व अने घटत्व) सविकल्प-निर्विकल्परूप होवा छतां अवक्तव्य नथी. कारण के ते पर्यायो अनुक्रमे पुरुष अने घटशब्द द्वारा कहेवाता होवाथी वक्तव्य छे. परन्तु दर क्षणे उत्पाद अने विनाश पामता अवा जे शब्दनिरपेक्ष अर्थपर्यायो छे, तेमां तो अवक्तव्य आदि भंगो पण घटावी शकाय." अर्थपर्यायो, अस्तित्व शब्दसापेक्ष नथी, तेथी तेमने शब्दथी अवाच्य कहीओ तो वांधो न आवे. पण व्यंजनपर्यायोगें अस्तित्व शब्दसापेक्ष होवाथी तेमने जो अवक्तव्यशब्दथी अवाच्य कहीओ तो तेमां स्पष्ट विरोध छे - अवो आ विधाननो भाव छे. पण आ कारण अटले उपेक्षणीय बने छे के अवक्तव्यभंगमां जे धर्म विशे आपणे विचारणा करी रह्या छीओ ते धर्मनुं अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थतुं ज नथी, पण ओ धर्मनुं ओना अस्तित्व-नास्तित्व बन्नेनी पोषक अपेक्षाओने आश्रये, जे स्वरूप रचाय छे, ओ स्वरूप, अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थाय छे. अने भंगरचनामां प्रणालीने अनुसरी धर्मीने धर्मना स्वरूपथी उपरक्त करी रजू करवामां आवतो होवाथी (जेमके रक्तत्वना अस्तित्वना प्रतिपादन वखते – 'स्याद् घटो रक्तः', नास्तित्वना - 'स्याद् घटोऽरक्तः') धर्मीनो ज अवक्तव्य तरीके उपन्यास थाय छे. (जेमके रक्तत्वना अवक्तव्यस्वरूप वखते – 'स्याद् घटोऽवक्तव्यः'). Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ १०७ छे ते, वास्तविक पर्याय छे. आ पर्यायो ओक क्षणमां ज वर्तनारा होय छे अने अतिसूक्ष्म होय छे. तेथी छद्मस्थ जीवो माटे ते प्रत्यक्षज्ञान के व्यवहारना विषय बनता नथी.' आ पर्यायोने शास्त्रीय परिभाषा मुजब 'अर्थपर्याय' कहेवामां आवे छे. जे पर्यायो अर्थभूत- वास्तविक छे तेवा पर्यायो ते अर्थपर्याय अथवा अर्थवस्तु पर आधारित पर्यायो ते अर्थपर्याय -आवो भाव अत्रे संभवी शके. अल्पकालीन पर्याय ते अर्थपर्याय के भूत-भविष्यना संस्पर्शथी रहित पर्याय ते अर्थपर्याय के ऋजुसूत्रनयना विषयभूत पर्याय ते अर्थपर्याय - आवी अर्थपर्यायनी व्याख्याओ उपरनो ज भाव दर्शावे छे. आ उपरान्त, व्यंजनपर्याय के जेनी ओळखाण आगळ करावाशे, तेवा ओक व्यंजनपर्याय अन्तर्गत संभवता व्यंजनपर्यायोने पण अर्थपर्याय कहेवाय छे.५ ज रीते कोई पण व्यंजनपर्यायने आपणे अर्थनिष्ठ पर्याय तरीके जोइओ तो अमां पण अर्थपर्याय शब्दनो व्यपदेश थाय छे. आ अनन्त अर्थपर्यायोनी परम्परामां जे पर्यायो परस्पर अत्यधिक समानता धरावता होय अने अक द्रव्यना कोइ ओक ज परिणाम (जेमके आत्माना गतिपरिणाम, स्थितिपरिणाम व.) के ओक ज गुणनी (जेमके आत्माना ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगेरे) परिणतिधारामां समाविष्ट थता होय; ते पर्यायोनो समूह ओक स्वतन्त्रपर्यायरूपे व्यक्त थाय छे तेमज ते रूपे छद्मस्थजीवना प्रत्यक्षनो विषय अने शब्दथी व्यवहार्य पण बने छे. आवा पर्यायसमूहात्मक पर्यायो 'व्यंजनपर्याय' गणाय छे. आपणे ओक उदाहरण जोइओ. यौवन ओ पुरुषद्रव्यनो पर्याय छे.आ यौवन अटले शुं ? बीजुं कशुं नहीं, ओक व्यक्तिनी १. 'ते क्षणमां वर्ततुं रूप' अवां वचनो द्वारा आ अर्थपर्यायोनो पण व्यवहार थइ शके छे, पण मुख्यतः आपणे जेओनो पर्याय तरीके व्यवहार करीओ छीओ ते आ अर्थपर्यायो नथी होता अटले अहीं अर्थपर्यायो व्यवहारनो विषय नथी बनता ओम लख्युं छे. २. सूक्ष्मवर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय, जिम घटनइं तत्तत्क्षणवर्ती पर्याय-द्रव्य.रा.स्त.-१४.१ ३. भूतभविष्यतत्त्वसंस्पर्शरहितं वर्तमानकालावच्छिन्नं वस्तुस्वरूपं चाऽर्थपर्यायः - जैनतर्कभाषा पृ. २२ । ४. ऋजुसूत्रादेशइं क्षणपरिणत जे अभ्यन्तर पर्याय ते शुद्ध अर्थपर्याय - द्रव्य.रा.स्त.-१४.५ ५. जे जेहथी अल्पकालवर्ती पर्याय, ते तेहथी अल्पत्वविवक्षाइं अशुद्ध अर्थपर्याय कहवा. - द्रव्य.रा.स्त.-१४.५ ६. वास्तवमां पुरुष ओ आत्मद्रव्यनो व्यंजनपर्याय छे, छतां पण तेमां द्रव्यत्वनो उपचार करीने तेने द्रव्य कहेवामां आवे छे. जुओ पृ.८४ -टि.१.कोई पणव्यंजनपर्याय द्रव्य तरीकेउपचरित थइ शके छे. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनुसन्धान-५५ लगभग २० थी ४५ वर्ष सुधीनी विविध अवस्थाओनो समूह ज यौवन छे. आ अवस्थाओ वास्तवमां परस्पर भिन्न छे, छतां पण महदंशे समानता धरावती होवाथी अने अेक व्यक्तिनी वयःपरिणामनी सन्ततिमां समाविष्ट थती होवाथी, तेओनो समूह रचाय छे. आ समूहने आपणे स्वतन्त्र ओक अवस्था तरीके कल्पी 'यौवन' अq नाम आपीओ छीओ. आम यौवन व्यंजनपर्याय छे. ___आवा पर्यायो 'व्यंजनपर्याय' केम कहेवाय ते 'यौवन' पर्यायना आधारे ज समजीओ. आ पर्याय जेटली अवस्थाओना समूहरूप छे, ओ सघळी अवस्थाओमां वर्ततुं सादृश्य आ अवस्थाओनो समूह रचवामां भले निमित्त बनतुं होय, पण ओ तमाम अवस्थाओने ओक दोरे परोवनार- ओमने सांकळनार तो आ तमाम अवस्थाओमां थतो यौवन-शब्दनो व्यवहार ज छे. मतलब के आवा समान पर्यायोना जूथनो ओक स्वतन्त्र पर्याय तरीके बोध-व्यवहार थाय, तेमां शब्द ज मुख्य भाग भजवे छे. माटे आवा व्यंजन- शब्द पर आश्रित पर्यायो व्यंजनपर्याय कहेवाय छे. ढूंकमां, अनन्तपर्यायोनी परम्परामां जेटलो सदृशपरिणामप्रवाह ओक शब्द के समानार्थी शब्दोनो वाच्य बनी व्यवहार्य थाय छे, तेटलो परिणामप्रवाह ज व्यंजनपर्याय कहेवाय छे. आपणे जेने पर्याय तरीके ओळखीओ छीओ ते पुरुषत्व, घटत्व व. सामान्यतः व्यंजनपर्यायो ज होय छे. शास्त्रोमां 'अर्थक्रियाकारक पर्याय ते व्यंजनपर्याय, त्रैकालिक पर्याय ते व्यंजनपर्याय, सदृश पर्याय ते व्यंजनपर्याय' आवी जे व्यंजनपर्यायनी व्याख्याओ मळे छे, ते उपरनो ज भाव दर्शावे छे. परन्तु उपाध्यायजी भगवन्ते व्यंजनपर्यायनी ओळखाण ‘घटकुम्भादिशब्दवाच्यता'५ तरीके आपी छे ते सम्बन्धे शुं समजवू ते प्रश्न छे. कारण के शब्दनिरूपितवाच्यता अने सदृशपरिणामप्रवाह बे बहु जुदी वस्तु छे, तो बन्नेने व्यंजनपर्याय समजवा ? १. ओक व्यंजनपर्यायनी अन्तर्गत नाना-नाना घणा व्यंजनपर्यायो समायेला होय तेवू पण बने. जेमके मनुष्यत्वनी अन्तर्गत बालत्व, युवत्व, वृद्धत्व व. बालत्वनी अन्तर्गत स्तनन्धयत्व, उपनयनसंस्कारयोग्यत्व व. २. प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनार्थक्रियाकारित्वोपलक्षितो व्यञ्जनपर्यायः - जैनतर्कभाषा पृ. २२ । ३. जे जेहनो त्रिकालस्पर्शी पर्याय ते तेहनो व्यंजनपर्याय - द्रव्य.रा.स्त.- १४.१ ४. येऽपि सदृशपर्यायास्तेऽपि सद्रव्यपृथिव्यादिवचनप्रतिपाद्या व्यञ्जनपर्यायाः - अनेकान्तव्यवस्था ५. व्यंजनपर्याय जे घटकुम्भादिशब्दवाच्यता - द्रव्य.रा.स्त.- ४.१३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ आनुं समाधान आम विचारी शकाय : नव्यन्यायमां घटभेदना अभावने घटत्वरूप गणवामां आवे छे. कारण के घटथी भिन्नता - घटभेद, घट सिवायना तमाम पदार्थोमां रहे छे. तेथी आ भेदनो अभाव फक्त घटमां ज मळे. अने त्यां ज घटत्व पण रहे छे. आम घटभेदाभाव अने घटत्व - बे समनियत धर्मो छे. अर्थात् ज्यां घटत्व छे त्यां ज घटभेदाभाव छे अने ज्यां घटत्व नथी त्यां घटभेदाभाव पण नथी. हवे, नव्यन्यायमां बे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवामां आवे छे.१ अने ते वास्तविक पण छे, कारण के जो ओ बन्ने अक ज न होय तो ओक सिवाय पण बीजी देखावी जोइओ, पण अवुं तो देखातुं नथी. माटे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवी जोइओ.' हवे, आ ज वात प्रस्तुत सन्दर्भमां विचारीओ तो ज्यां मनुष्य शब्दथी व्यवहार्य अवो सदृशपरिणामप्रवाह छे त्यां ज मनुष्यशब्दनिरूपित वाच्यता छे अने ज्यां ओवो परिणामप्रवाह नथी त्यां ओवी वाच्यता पण नथी. तो आ बन्ने ओक ज थया. अने तेथी सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्यायने शब्दवाच्यता तरीके ओळखावीओ तो कोई दोष नथी. बाकी आ रीते न विचारीओ अने व्यंजनपर्यायने वाच्यतारूप ज गणीओ तो ओमां 'व्यंजनपर्याय भिन्न- अभिन्न बन्ने स्वरूप धरावे छे' अ सन्मतिवचननी संगति करवी अशक्य छे. सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्याय स्वतन्त्र पर्यायरूपे अभिन्न (ओक) पण छे अने पर्यायोना समूहरूप होवाथी भाज्य (-अनेक) पण छे. तेथी तेमां ज सन्मतिवचननी संगति बराबर थाय छे. हवे आवा अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने अनुलक्षीने प्रस्तुत गाथानो भावार्थ जोइओ : कोई पण अर्थपर्याय तेना धर्मीमां चोक्कस द्रव्य-क्षेत्र - काल अने भावनी अपेक्षाओ ज अस्तित्व धरावतो होय छे. तेना आ आपेक्षिक अस्तित्वनो १०९ १. द्वौ नञौ प्रकृतमर्थं गमयतः, मतुबन्ताद् विहितो भावः प्रकृतिं बोधयति - आवी व्याकरणनी परिभाषाओ पण आ ज भाव धरावे छे. २. आत्माना ज्ञान, दर्शन, चरित्र वगेरे पण समनियत धर्मो छे. तो तेने पण ओक ज गणवा ? आवो प्रश्न थवो संभवित छे. पण अनुं समाधान अ ज छे के आ धर्मो ओकबीजाथी स्वतन्त्र उत्कर्ष - अपकर्ष अने शक्तिओ धरावे छे तेथी तेमने अंक गणी शकाय नहीं. ३. सन्मतिकारने खुदने अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायना उपरोक्त अर्थ ज सम्मत छे ते दर्शावनारो शास्त्रपाठ : ‘“जेम पुरुषशब्दवाच्य जे जन्मादिमरणकालपर्यन्त अक अनुगत पर्याय ते पुरुषनो व्यंजनपर्याय, सम्मतिग्रन्थइ कहिओ छइ. तथा बालतरुणादि पर्याय ते अर्थपर्याय कहिआ. तिम सर्वत्र फलावी लेवुं. अत्र गाथा - पुरिसम्मि पुरिससद्दो० (सन्मति १.३२) " - द्रव्य.रा.स्त.-१४.६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान-५५ पूर्ण बोध सप्तभंगीमां पर्यवसित थाय छे. अने आ साते भांगामां धर्म तरीके तो ते अर्थपर्याय मोजूद होय ज छे. माटे आ अर्थपर्यायनी प्ररूपणा आपणे सात विकल्पे करी शकीओ. आ ज वात आ गाथाना पूर्वार्धमां कहेवाई छे- 'अत्थपज्जाएअर्थपर्यायमां (-तेने लगती प्ररूपणामां) एवं- उपर दर्शावेली रीते सत्तविअप्पोसात प्रकारनो वयणपहो- वचनमार्ग होइ - रचाय छे. ' सदृशपर्यायप्रवाहरूप व्यंजनपर्याय स्वयं शब्दवाच्य समूहरूपे अक (-निर्विकल्पः) पण छे अने अनेक पर्यायोना समूहरूप होवाथी अनेक (-सविकल्प) पण छे. तेथी आपणे तेनी प्ररूपणा पण बे रीते करी शकीओ : १. व्यंजनपर्यायने तेना सामान्यस्वरूपे ज प्ररूपीओ, तेना भेदो न वर्णवीओ. आ वखते व्यंजनपर्याय - विषयक वचनमार्ग निर्विकल्प बने छे. २. व्यंजनपर्यायने तेना अन्तर्गत आवेला पर्यायात्मक विकल्पो साथे वर्णवीओ. जेमके, पुरुषपर्यायनी प्ररूपणा बाल, युवान, वृद्ध वगेरे भेदो साथे करीओ. तो ते वखते व्यंजनपर्यायविषयक वचनमार्ग सविकल्प बने छे. आ व्यवस्थाने अनुसरीने भांगा आम रचाय : ' स्यादेक एव पुरुषः स्यादनेक एव पुरुष: ' अत्रे व्यंजनपर्यायविषयक प्ररूपणामां सविकल्प प्ररूपणा के निर्विकल्प प्ररूपणा ओम बे ज विकल्पो संभवित छे. त्रीजो कोई मार्ग ज नथी. २ तेथी तेमां आपोआप चीजो भांगो रचातो नथी. ३ आ ज वात आ गाथाना उत्तरार्धमां कहेवाइ छे : 'वंजणपज्जाए - व्यंजनपर्यायमां (-तद्विषयक प्ररूपणामां), उण - वळी, सवियप्पो - विकल्पो सहित य- अने णिव्वियप्पो- विकल्पोथी रहित (वचनमार्ग छे. ) ' मतलब के व्यंजनपर्यायनी प्ररूपणा स्वतन्त्र पर्यायरूपे पण करी शकाय अथवा तेने पर्यायसमूहरूपे पण वर्णवी शकाय. अत्रे वर्णवी तेवी सविकल्पत्व - निर्विकल्पत्वनी प्ररूपणा आ पूर्वे १.३२ थी १.३५ गाथामां वर्णवाइ छे ते आ भावार्थनी वास्तविकतानो सबळ पुरावो छे. वळी, १. निर्विकल्प = निर्भेद. गाथा १.३२मां विकल्प शब्द भेद अर्थमां वपरायो छे. २. सर्विकल्प अने निर्विकल्प उभयनी प्ररूपणा तो प्रमाणवाक्य बनी जाय के जेने भंग न कहेवाय. तेथी त्रीजो विकल्प नथी ओम जणाव्युं छे. ३. अर्थपर्यायमां जे रीते पहेला बे भांगा छे, ते रीते व्यंजनपर्यायमां करवाना ज नथी. माटे अर्थपर्यायनी सप्तभंगीगत त्रीजो अवक्तव्यनो भांगो, व्यंजनपर्यायमां थाय के न थाय ते विचारवानी जरूर नथी. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ आ प्रमाणे विचारवामां तर्कजाळथी दूर रहीने वास्तविकता सुधी पहोंची शकाय छे ते पण ध्यानार्ह छे. १११ अन्ते, पूर्व महर्षिओ अने तेओनां वचनो प्रत्ये अपार आदरभाव होवा छतां अत्रे ओमनां वचनोनी जे विचारणा करी छे तेमां ओक ज समज मुख्य रही छे के सप्तभंगी हेतुवाद अन्तर्गत आवे छे अने हेतुवादमां चर्चानां द्वार हमेशां खुल्लां ज रहे छे. आ समग्र लखाण विचारणात्मक छे. आ आम ज होय, आम नहीं ज ओवो कोई आग्रह नथी. बनी शके के पूर्वमहर्षिओनां वचनोनुं अर्थघटन दर्शावेली रीत करता जुदी रीते करवानुं होय. तेथी आ समग्र विचारणामां रहेली क्षतिओ जो विद्वज्जनो सूचवशे अने जे वातो योग्य जणाय ते परत्वे पोतानी सम्मति जणावशे तो तेओओ फक्त मारा पर ज नहीं, पण नयवादना सर्व जिज्ञासुओ पर उपकार कर्यो गणाशे. * * * सन्दर्भसूचि सन्मतितर्क - वादमहार्णव-टीका साथे- गाथा १.३० - ४१, कर्ता - श्रीसिद्धसेन दिवाकर, टीका- श्रीअभयदेवसूरि, सं.- पं. श्रीसुखलालजी, पं. श्रीबेचरदास दोशी, प्र.- RENSEN Book Co., Tokyo. सन्मतितर्कविवेचन- पृ. २२२ - २२३, कर्ता - पं. श्रीसुखलालजी, पं. श्रीबेचरदास दोशी, प्र. - गूजरात विद्यापीठ, अमदावाद. अनेकान्तव्यवस्था (सटीक ) - भाग - २ पृ. २४६ - २५६, कर्ता - उपा. श्रीयशोविजयजी, टीका- श्रीविजयलावण्यसूरिजी प्र.- लावण्यसूरि ज्ञानमन्दिर, बोटाद . द्रव्यगुणपर्यायरास-सस्तबक गाथा ४.१३, १४.१ - ९, कर्ता- उपा. श्रीयशो विजयजी जैनतर्कभाषा (सटीक) पृ. २२, कर्ता- उपा. श्रीयशोविजयजी, टीका- पं. श्रीसुखलालजी, प्र.- सरस्वती पुस्तक भण्डार, अमदावाद. कर्ता - उपा. श्रीयशोविजयजी नयरहस्य सप्तभङ्गीप्रभा - कर्ता- श्रीविजयनेमिसूरिजी, सं.- कीर्तित्रयी, प्र.- जैनग्रन्थप्रकाशन समिति, खंभात. सप्तभङ्गीविंशिका (सविवेचन ) गाथा १५ - १९, कर्ता - श्रीअभयशेखरसूरिजी, प्र. - दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोळका. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-५५ सन्मतितर्कनी प्रस्तुत विषयने सम्बन्धित मूळगाथाओ दव्वट्ठियवत्तव्वं, सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं । आरद्धो य विभागो, पज्जववत्तव्वमग्गो य ॥१.२९॥ सो उण समासओ च्चिय, वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य । अत्थगओ य अभिण्णो, भइयव्वो वंजणविअप्पो ॥१.३०॥ एगदवियम्मि जे अत्थ - पज्जया वयणपज्जया वा वि । तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ॥ १.३१॥ पुरिसम्म पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपज्जंतो । तस्स उ बालाईया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ॥१.३२॥ अत्थि त्ति णिव्वियप्पं, पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम् । सो बालाइवियप्पं, न लहइ तुल्लं व पावेज्जा ॥१.३३॥ वंजणपज्जायस्स उ पुरिसो, पुरिसो ति णिच्चमविप्पो । बालाइवियप्पं पुण, पास से अत्थपज्जाओ ॥१.३४॥ सवियप्प-णिव्वियप्पं, इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं । सवियप्पमेव वा णिच्छएण ण स निच्छिओ समए ॥१.३५ ॥ अत्थंतरभूएहि य, णियएहि य दोहि समयमाईहिं । वयणविसेसाईयं, दव्वमवत्तव्वयं पडइ ॥ १.३६॥ अह देसो सब्भावे, देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ । नं दवियमत्थि णत्थि य, आएसविसेसियं जम्हा ॥१.३७॥ सब्भावे आइट्ठो, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं अस्थि अवत्तव्वं, च होइ दविअं वियप्पवसा ॥१.३८॥ आइट्ठोऽसब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं णत्थि अवत्तव्वं, च होइ दविअं वियप्पवसा ॥१.३९॥ सब्भावासब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स । तं अत्थि णत्थि अवत्त - व्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥ १.४०॥ एवं सत्तवियप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण, सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥१.४१॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ११३ वादमहार्णव- टीकागत प्रस्तुत गाथानुं विवरण अन्योन्यापरित्यागव्यवस्थितस्वरूपवाक्यनयानां शुद्धयशुद्धिविभागेन संङ्ग्रहादिव्यपदेशमासादयतां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावेव मूलाधार इति प्रदर्शनार्थमाह— एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥४१॥ एवं इत्यन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदः वचनमार्गे वचनपथः भवत्यर्थपर्याये अर्थनये सङ्ग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्रलक्षणे सप्ताऽप्यनन्तरोक्ता भङ्गका भवन्ति । तत्र प्रथमः सग्रहे सामान्यग्राहिणि, 'नास्ति' इत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः सङ्ग्रह - व्यवहारयोः, पञ्चम: सङ्ग्रहऋजुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहार-ऋजुसूत्रयोः, सप्तमः सङ्ग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेषु । व्यञ्जनपर्याये शब्दनये सविकल्पः प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् । द्वितीय- तृतीययोर्निर्विकल्पः द्रव्यार्थात् सामान्यलक्षणान्निर्गतपर्यायाभिधायकत्वात् समभिरूढस्य पर्यायभेदभिन्नार्थत्वात् एवम्भूतस्याऽपि विवक्षितक्रियाकालार्थत्वात् । लिङ्ग-संञ्ज्ञा- क्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दावाच्यत्वात् शब्दादिषु तृतीयः । प्रथम - द्वितीयसंयोगे चतुर्थ:, तेष्वेव चाऽनभिधेयसंयोगे पञ्चम-षष्ठ-सप्तमा वचनमार्गा भवन्ति । अथवा प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी सङ्ग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्रेष्वेवाऽर्थनयेषु भवतीत्याह- एवं सत्तवियप्पो इत्यादिगाथाम् । अस्यास्तात्पर्यार्थः I अर्थनय एव सप्त भङ्गाः, शब्दादिषु तु त्रिषु नयेषु प्रथम- द्वितीयावेव भङ्गौ । यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तृस्थ: सङ्ग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्राख्यः प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः, अर्थवशेन तदुत्पत्तेः, अर्थं प्रधानतयासौ व्यवस्थापयतीति कृत्वा, शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि तच्छब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्द- समभिरूढ - एवंभूताख्यः प्रत्ययस्तस्य शब्द: प्रधानं, तद्वशेन तदुत्पत्तेः, अर्थस्तूपसर्जनं, तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात्, स शब्दनय उच्यते । तत्र च वचनमार्गः सविकल्प - निर्विकल्पतया द्विविध:- सविकल्पं सामान्यं, निर्विकल्पः पर्यायः, तदभिधानाद् वचनमपि तथा व्यपदिश्यते । तत्र Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान-५५ शब्द-समभिरूढौ सञ्ज्ञा- क्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः । एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद् भिन्नमेवाऽर्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्ककरूपस्तद्वचनमार्गः । अवक्तव्यभङ्गकस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गकः व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्प-निर्विकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येण, 'तु'शब्दस्य गाथायामेवकारार्थत्वात् ॥४१॥ द्रव्यगुणरास-स्तबकगत प्रस्तुत गाथानुं विवरण शिष्य पूछइ छइ - " जिहां २ ज नयना विषयनी विचारणा होइ, तिहां ओक ओक गौण - मुख्यभावई सप्तभंगी थाओ. पणि जिहां प्रदेश - प्रस्थकादि विचारइं सात छ पांच प्रमुख नयना, भिन्न भिन्न विचार होइ, तिहां अधिक भंग थाइ, तिवारइं सप्तभंगीनो नियम किम रहइ ?" गुरु कहइ छइ - " तिहां पणि ओक नयार्थनो मुख्यपण विधि, बीजा सर्वनो निषेध, इम लेइ प्रत्येकिं अनेक सप्तभंगी कीजइ". अम्हे तो इम जाणुं छं. "सकलनयार्थ - प्रतिपादकतात्पर्यादधिकरणवाक्यं प्रमाणवाक्यम्" अ लक्षण लेइनइं, तेहवे ठामे- स्यात्कारलांछित सकलनयार्थसमुहालंबन अक भंगइ पणि निषेध नथी. जे माटि व्यंजनपर्यायनइ ठामि २ भंगइं पणि अर्थसिद्धि सम्मतिनां विषई देखाडी छइ तथा च तद्गाथा एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए वंजणपज्जाए पुण, सविअप्पो णिव्विअप्पो य ॥ १.४१ ॥ अहनो अर्थ- एवं- पूर्वोक्त प्रकारइ, सप्तविकल्प - सप्तप्रकार वचनपथसप्तभंगीरूप वचनमार्ग ते अर्थपर्याय, अस्तित्व - नास्तित्वादिकनई विषइ होइ. व्यंजन पर्याय जे घटकुम्भादिशब्दवाच्यता, तेहनइं विषदं सविकल्प - विधिरूप, निर्विकल्प- निषेधरूप से २ ज भांगा होइ, पणि अवक्तव्यादि भंग न होइ, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई २०११ ११५ जे माटि अवक्तव्य शब्दविषय कहिइं तो विरोध थाइ. अथवा सविकल्प शब्द-समभिरूढ नयमतइं, अनइं निर्विकल्प अवम्भूतनयमतइं, इम २ भंग जाणवा, अर्थनय प्रथम ४ तो व्यंजनपर्याय मानइ नहीं. ते माटई ते नयनी इहां प्रवृत्ति नथी. अधिकुं अनेकान्तव्यवस्थाथी जाणवू. तदेवमेकत्र विषये प्रतिस्वमनेकनयप्रतिपत्तिस्थले स्यात्कारलाञ्छिततावन्नयार्थप्रकारकसमूहालम्बनबोधजनक एक एव भङ्ग एष्टव्यः, व्यञ्जनपर्यायस्थले भङ्गद्वयवद् । यदि च सर्वत्र सप्तभङ्गीनियम एव आश्वासः, तदा-चालनीयन्यायेन तावन्नयार्थनिषेधबोधको द्वितीयोऽपि भङ्गः तन्मूलकाश्चाऽन्येऽपि तावत्कोटिकाः पञ्च भङ्गाश्च कल्पनीयाः, इत्थमेव निराकाङ्क्षसकलभङ्गनिर्वाहाद्, इति युक्तं पश्यामः । ओ विचार स्याद्वादपंडितइं सूक्ष्मबुद्धिं चित्तमांहि धारवो ॥४.१३।। शब्दनयोमां अवक्तव्यभङ्ग केम ना मळे तेनी अनेकान्तव्यवस्थागत चर्चा अवक्तव्यभङ्गस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव, यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नाऽवक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता 'व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्पक-निर्विकल्पौ' प्रथम-द्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येणेति टीकाकृतो व्याचक्षते । ___ अत्र वक्तरि यत् सप्तभङ्ग्यर्थज्ञानं तन्मानसोत्प्रेक्षोपनीतपदार्थसंसर्गभानरूपं, श्रोतरि तु शाब्दमेव तत् सम्भवति, अवक्तव्यं तु न शब्दविषयः किन्तु शब्दाभावविषय इति यद् व्यञ्जननयतात्पर्यमुन्नीतं तत् कथं सङ्गच्छते ?, शब्दाभावस्याऽप्रमाणत्वेन कस्याऽप्यर्थस्य तदविषयत्वात्, कथञ्चिन्मते शब्दानुपलब्धेः शब्दाभावविषयप्रमाणत्वेऽपि तां विना तद्विषयं विलक्षणं ज्ञानं मा जनि, अवक्तव्यपदाद् वक्तव्यत्वाभावविषयशाब्दबोधोत्पत्तौ किं बाधकम् ? नहि भावविषयक एव शाब्दबोधो भवति, न त्वभावविषयक इत्यत्र प्रमाणमस्ति, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 अनुसन्धान-५५ पदज्ञानादिकार्यतावच्छेदककोटौ भावशाब्दत्वप्रवेशे गौरवात्, 'घटो नास्ति' इत्यादेघटाभावादिबोधस्य सार्वजनीनत्वाच्च / तत्रापि नत्र उपसर्गवद् द्योतकतया तात्पर्यग्राहकत्वमात्रमेव, घटपदस्य घटप्रतियोगिके लक्षणाध्रौव्येऽभावान्तर्भावेनैव तस्या युक्तत्वादिति चेत् ? न- 'न न घटः' इत्यत्रैकस्माद् घटपदाद् घटत्व-घटाभावाभावत्वाभ्यामेकदा शक्तिलक्षणाभ्यां बोधासम्भवेन नञः पृथक्शक्तिकल्पनावश्यकत्वाद्; द्योतकत्वपक्षेऽपि 'घटो नास्ति' इत्यादिवाक्यरीत्यैव 'स्यादवक्तव्यो घटः' इत्यतोऽवक्तव्यत्वबोधाप्रतिरोधाच्च / तस्मान्नाऽयं प्राञ्जलः पन्थाः / किन्तु कथञ्चिदवक्तव्यत्वमिह 'एकपदजन्यप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधाविषयत्वम्' / तद्बोधनं त्वर्थनये मानसोत्प्रेक्षोपस्थित-खण्डश:प्रसिद्धपदार्थासंसर्गाग्रहमात्रात् कथञ्चित्संसर्गग्रहाद् वा सम्भवति / व्यञ्जननये तु तन्न सम्भवति, 'असतो णत्थि णिसेहो' इत्यादि भाष्यकृद्वचनादुक्तविशिष्टप्रतियोगिनोऽसिद्ध्या तदभावस्याऽप्यसिद्धत्वात् पदार्थमर्यादया वाक्यार्थमर्यादया वा बोधयितुमशक्यत्वात् / न च स्यात्पदसमभिव्याहृतावक्तव्यपदात् प्रकृते खण्डशः शक्त्या बोधः सम्भवति, एकपदार्थयोः परस्परमन्वयबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वात्, अन्यथा हरिपदादुपस्थितयोः सिंह-कृष्णयोराधाराधेयभावसम्बन्धेनाऽन्वयबोधप्रसङ्गादिति सूक्ष्मेक्षिकामनुसरता व्यञ्जनननयेन प्रकृते नव्यत्यासादेकपदाजनितप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधविषयत्वं स्यादवक्तव्यत्वं वाच्यं, तच्च भङ्गद्वयार्थमादाय पर्यवस्यतीति व्यञ्जननये द्वावेव भङ्गाविति व्याख्यातृतात्पर्यं सुष्ठ घटामटाट्यते / देशकृतश्चतुर्थभङ्गस्तु व्यञ्जननयेन शुद्धेन देश्यतिरिक्तदेशाभावादेव नोद्भावनार्ह इति विभावनीयं सुधीभिः //