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अनुसन्धान-५५
निरूपण त्यारे महदंशे नहोतुं थतुं. माटे वास्तविकतानी भूमि पर आधार राखनारो भावार्थ होवो जोइओ.
सौथी महत्त्वनी वात तो ये छे के आ गाथानो आवो अर्थ करवा माटे अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने लगतुं प्रकरण ज्यांथी शरु थाय छे ते १.३० गाथामां पण आ शब्दोनो अर्थ अनुक्रमे अर्थनय अने शब्दनय करवो पडे छे. अने अने लीधे आ प्रकरणनी अर्थसंगति केटली कठिन बने छे ते अ ज गाथामां ' अर्थपर्याय अभिन्न छे अने व्यंजनपर्याय तो भिन्न - अभिन्न बन्ने छे' आ वातनी संगतिनो प्रयास जोतां समजाय छे. १
आ कारणोने लीधे आ गाथानुं मूळकारने सम्मत तात्पर्य जुदुं होवानुं समजाय छे. ते शुं होइ शके ते आगळ विचारीशुं.
हवे आपणे द्रव्यगुणपर्यायरास - स्तबकमां उपाध्यायजी भगवन्ते आ गाथानुं जे तात्पर्य देखाड्युं छे ते जोइशुं. त्यां आ गाथानुं उद्धरण अक विशिष्ट प्रश्नना सन्दर्भे थयुं छे. प्रश्न से छे के 'ज्यां धर्मसम्बन्धित - धर्म विषेनी अपेक्षाओ बे कोटिमां समाइ जाय (जेमके घटनिष्ठ अस्तित्व सम्बन्धे, स्वरूपादि अस्तित्वपोषक अने पररूपादि नास्तित्वपोषक) त्यां तो परिपूर्ण बोध सात भांगामां समाइ जाय छे, परन्तु ज्यां अपेक्षाओ बे करतां वधारे कोटिमां समाय छे, त्यां तो सात करतां वधारे ज भांगा थवाना. त्यारे सप्तभंगीनो नियम साचववा शुं करवुं ?"
उपाध्यायजीओ आ बाबतने सम्बन्धित शास्त्रीयचर्चा पण उद्धृत करी छे. अत्रे आ चर्चानो भाव जोइशुं.
" शिष्य : प्रदेश, प्रस्थक, वसति वगेरेना विषयमां पांच-छ नयोनी विभिन्न मान्यता छे.२ हवे तेमां अक नयनी अपेक्षाओ जे प्रदेशादि छे ते बीजा १. त्यां आ वातनी संगति आम समजाववामां आवी छे : "अर्थपर्याय अभिन्न होय छे, कारणके ते असत्, अद्रव्य अने अतीत - अनागतथी व्यवच्छिन्न सेवा अर्थना पर्यायरूप होय छे; अने अर्थनयो आवा अभिन्न अर्थपर्यायना ग्राहक होवाथी अर्थगत विभाग अभिन्न छे. ज्यारे व्यंजनपर्याय- शब्दनय तो भिन्न- अभिन्न बन्ने छे, कारण के वस्तु तो अनेक शब्दोथी पण वाच्य होय छे (-साम्प्रतमते) अने अक शब्दथी ज वाच्य होय तेम पण बने छे (-समभिरूढ, अवम्भूतमते). " आ संगति परत्वे अनेक प्रश्नो सर्जाइ शके तेम छे. २. आ मान्यताओ 'नयरहस्य' मां सरस रीते देखाडवामां आवी छे.