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मई २०११
सन्मतितर्क - गाथा १.४१ना तात्पर्य विशे विचारणा
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण, सवियप्पो निम्वियप्पो य ॥ सन्मति. - १.४१ (एवं सप्तविकल्पो, वचनपथो भवत्यर्थपर्याये । व्यञ्जनपर्याये पुनः, सविकल्पो निर्विकल्पश्च ॥)
सन्मतितर्कमां सप्तभंगीनी प्ररूपणा पछी मूकायेली उपर्युल्लिखित गाथा, सप्तभंगीमां नयनी योजना दर्शावता शास्त्रपाठ तरीके सुप्रसिद्ध छे अने जैनन्यायने सम्बन्धित अनेक ग्रन्थोमां ओ उद्धृत थयेली जोवा मळे छे. आ गाथानो शब्दार्थ आवो थाय छे : "आ प्रमाणे (-पूर्वेनी गाथाओमां देखाड्या मुजब) सात विकल्प धरावतो वचनमार्ग अर्थपर्यायमां थाय छे. व्यंजनपर्यायमां तो सविकल्प अने निर्विकल्प वचनमार्ग छे." आम, आ गाथानो शब्दार्थ तो तद्दन सरळ छे, पण जे शब्दो पाछळनुं तात्पर्य पकडवू अटलुं ज अघरुं छे.
__ आ गाथाना तात्पर्य विशे सौप्रथम छणावट आपणने सन्मतितर्क परनी वादमहार्णव टीका (-श्रीअभयदेवसरिजीकृत)मां जोवा मळे छे. त्यार पछीनां आ गाथा परनां तमाम विवरणो प्रायः टीकाने ज अनुसरे छे. एकमात्र उपा. श्रीयशोविजयजीओ अनेकान्तव्यवस्था अने द्रव्यगुणपर्यायरासस्तबकमां आ गाथा विशे थोडीक नवी वातो रजू करी छे. अने ते उपरान्त, श्रीअभयशेखरसूरिजीओ सप्तभंगीविशिका, द्रव्यगुणपर्यायरास-विवेचन व. ग्रन्थोमां आ गाथा विशे मौलिक विचारणा दर्शावी छे. वळी, पं. श्रीसुखलालजीओ पण सन्मतितर्क-अनुवादमां आ गाथाना तात्पर्य अंगे अक नवी ज दिशा चींधी छे. अत्रे आ तमाम रजूआतो, ते पाछळना आशयो, तेओनी परस्पर भिन्नता, मूळग्रन्थना सन्दर्भे तेओनी युक्तता व. विशे विचारवानो उपक्रम छे.
आ गाथाना तात्पर्य विशे विचारवा माटे, सप्तभंगी अटले शुं? ते विशे थोडंक समजी लेवु जरूरी छे. सप्तभंगी ओ जैन पारिभाषिक शब्द छे अने तेनो अर्थ 'धर्मीमां धर्मना आपेक्षिक अस्तित्वनो परिपूर्ण बोध करावनार