Book Title: Sanghpattak
Author(s): Jinvallabhsuri
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 10
________________ 8. अथ श्री संघपहका मामयु. ते प्रसंगे तेमणे था संघपट्टक' नामनो चालीश काव्यनो उत्तम ग्रंथ रच्यो . एमां तेमणे ते वखते चैत्यवासिओनु के जोर इतुं, केवी रीते ते सूत्रविरुक प्रवर्चता इता अने सुविहितमुनि तरफ ते केवो केषनाव राखता हता ते सघलु आवेहुब दर्शावीने तेमनी सारी रीते काटकणी करी विधिमार्गना रागिजनोने उत्तेजित कर्या . त्यारवाद तेमणे चीतोमना मुख्य श्रावकोने प्रतिबोधित कर्या एटले ते श्रावकोए त्यां वीरप्रजुर्नु विधिचैत्य बंधाव्युं ते चैत्यना गर्नगृहना दरवाजाना बे स्तंनोमां एक उपर श्रा संघपट्टकनां चाळीश काव्य अने बीजा स्तंन उपर तेज आचार्य रचेल धर्मशिक्षानां चुमाळीश काव्य शिलालेखमां कोतरावी ते ग्रंथो शिलारुढ कराव्या. ते उपरांत बजामां ते चैत्यमां केवी रीते वर्चq ते माटेना नियमोनां काव्यो पण कोतराव्यां ने जेमांनां बे काव्य था प्रमाणे : अत्रोत्सूत्रि जनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयौ न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि; जाति ज्ञाति कदाग्रदो न च न च श्राक्षेषु तांबूल मित्याज्ञा त्रेय मनिश्रिते विधिकृते श्रीवीर चैत्यालये १. जावार्थः- स्थळे सूत्र विरुद्ध चालनार माणसनो हुकमहद्दो नथी, हमेशां राने स्नान करवामां आवनार नथी, साधुनी मालकी श्रथवा रहेगण शहाँ नथी, राने स्त्रीने पेसवा देवामां श्रावशे नहि, नात जातनो कदाग्रह शहां करवामां श्रावशे नहि

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