Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 108
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राक्षस-प्रभुत्व अवरुद्ध हो गया । श्रीराम ने कुछ समय बाद रावण का वध कर उसकी महत्त्वाकांक्षा को समाप्त कर दिया । उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का शासक बनाया गया । विभीषण तथा उसके उत्तराधिकारियों ने उस आर्य-परंपग के प्रति श्रद्धा और विश्वास प्रकट किया, जिसके प्रतिनिधि अयोध्यापति राम थे। उन्होंने ऋषियों को दक्षिण भारत में आर्य-संस्कृति के प्रचार में सहयोग दिया । इस प्रकार वह संस्कृति समस्त भारत में फैली । आरंभ में इस कार्य में भीराम को वानरों तथा ऋशों से प्रभूत सहायता मिली, जिन्होंने आपस में मिल कर अपना एक दृढ़ संगठन बना लिया था। रावण की दुर्दात पाशविक शक्ति का उन्मूलन सहज संभव न था। इसके लिए श्रीराम को वानरों तथा ऋक्षों का विशेष रूप से सहयोग लेना पड़ा । ये दोनों मानव जातियां थी और इनका निवास विंध्य तथा उसके दक्षिण के भूभाग में था । वानराधिप सुग्रीव के साथ श्रीराम की मैत्री कराने का श्रेय हनुमान को प्राप्त हुआ । जब ऋष्यमूक पर्वत पर श्रीराम की प्रथम भेट हनुमान से हुई तबसे लेकर अंत तक हनुमान ने राम के प्रति असाधारण निष्ठा का निर्वाह किया । सीता की खोज, सेतुबन्ध, गम-रावण युद्ध, अयोध्या-वापसी तथा राम-राज्याभिषेक-इन सभी मुख्य घटनाओं में हनुमानजी श्रीराम के “दक्षिणहस्तवत्" रहे । राक्षसों के साथ महायुद्ध में हनुमान का शौर्य तथा कौशल सराहनीय थे । उनके इन गुणों तथा अपने प्रति असीम निष्ठा के कारण श्रीराम उन्हें अपना अनन्य भक्त मानने लगे। रामभक्त हनुमान को भारतीय संस्कृति के संरक्षक होने के नाते परवर्ती भारतीय इतिहास में प्रचुर सम्मान प्राप्त हुआ। गोस्वामी तुलसीदासजी ने उसके महत्त्व को विशेषरूप से बढ़ाया । गोस्वामीजी के समय (16 वीं शती) से लेकर आज तक हनुमानजी की पूजा व्यापक रूप में भारत के विभिन्न भागों में विद्यमान है। प्राचीन भारतीय साहित्य और कला में हनुमानजी को यशोगान विविध रूपों में उपलब्ध है । संस्कृत, प्राकत. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हनुमान का गुणगान अनुपम रामभक्त के रूप में मिलता है। साथ ही उन्हें अत्याचार के विध्वंस असीम शक्ति वाला देव माना गया, जो असंभव को भी संभव बनाने की क्षमता रखता है। भारतीय मूर्तिकला में ईसवी आठवीं शती से वीरभाव में हनुमान की विशाल प्रतिमायें बनने लगीं । उनके मंदिरों का भी निर्माण पूर्वमध्य काल में आरंभ हुआ। हनुमानजी की आठवीं शती की एक खंडित पाषाण-मति लखनऊ संग्रहालय में है। उसी काल की दूसरी मूर्ति चित्तोड़ में मिली थी। मध्य प्रदेश के गुना जिले में इन्दोर (प्राचीन इन्द्रपुर) में हनुमान के मंदिर के अवशेष मिले हैं । वहीं उनकी एक विशाल पाषाण-प्रतिमा सुरक्षित है । मूर्ति की चरणचौकी पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि मूर्ति का निर्माण ई. नवीं शती में हुआ । मूर्ति में दायां हाथ ऊपर उठा है, और बायां भग्न है। उनका बायां पैर अपस्मार पुरुष के ऊपर रखा है । कमर का कटिबंध रोचक है। हनुमान की एक महाकाय मूर्ति मथुरा में मिली थी, जो अब मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। उसमें हनमान का वीरभाव बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से प्रदर्शित है। यह मूर्ति लाल बलुए पत्थर की बनी है और उसका निर्माण-काल नवीं शती के आरंभ का है । वानरमुख हनुमान की मूर्तियाँ बनाने का आरंभ संभवत: मथुरा-कला में हुआ। खजुराहो (मध्यप्रदेश) में हनुमानजी की तीन उल्लेखनीय प्रतिमाएँ मिली है। पहली महाकाय मति खजुराहो के पश्चिमी मंदिर-समूह से गाँव की ओर आती हुई सड़क के किनारे बनी हुई मंडपिका (मडिया) में प्रतिष्ठापित है। वहाँ पहले हनुमान का मंदिर रहा होगा । यह प्रतिमा विशेष महत्त्व की है। इसकी चरण चौकी पर हर्ष संवत् 316 (3922) ई.) का बाहमी लेख उत्कीर्ण है । खजुराहो में उपलब्ध लेखों *104] [Samipya : April, '91-March, 1992 For Private and Personal Use Only

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