Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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गोकुल अनन्त धाम है वहां श्रीकृष्ण अपनी षड् गुण सम्पन्न दिव्य आध्यात्मिक देह द्वारा रमण करते हैं । यह आनन्द विग्रह है । यह अक्षर ब्रह्म और अक्षरधाम दोनों ही है । इसलिए गोकुल, वृन्दावन, गोलोक भौगोलिक प्रदेश नहीं है अपितु भगवान के अनन्तधाम है । यह अनन्त और सर्वत्र है । ( वही 4-12-15 ) अतः भगवान की लीला की अनुभूति ही मोक्ष है और उसमें प्रवेश ही परमा मुक्ति है ।
"लीलेव केवल्यं जीवानां मुक्ति रूपम्
तत्र प्रवेशः परमा मुक्तिरिदित्य यावदिहार्थः । (वही, 4-4-14)
यह परमा मुक्ति ब्रह्मैक्य मुक्ति से उत्तम है क्यों कि जीव भजन अर्थात् भगवद् लीला है के आनन्द का अर्थात् भजनान्द का दिव्य देह प्राप्त करने के बाद अनुभव करता है । यह पुष्ठि मार्ग की पूर्ण मुक्ति है ।
"मुक्तोऽपि जीवः पुष्टिमार्गेऽगीकृतो भगवद्विग्रह
प्राप्त भजवानन्द प्राप्नोति इति सिद्धम्...
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इस प्रकार जीव और ब्रह्म के मिलन व एक्य का समाधान हो जाता है। शरीरी के रूप में जीव ब्रह्म की लीला का आनन्द लेता है । और अशरीरी रूप में ब्रह्म एकक्य होने से जीव का ब्रह्म में विलय हो जाता है और ब्रह्म के साथ जीव भी उसकी लीला के आनन्द का अनुभव करता है । इस प्रकार द्वैत और अद्वैत परक दोनों श्रुतियों का वल्लभाचार्य अणु भाष्य में समन्वय करते हैं। सूरदास कहते हैं :
“चितवनि रोके हूँ न रही
स्याम सुन्दर सिन्धु-सनमुख सरित उमंग बही
मिल्ली सूर स्वभाव स्यामहि फेरि हूँ न चही" (सू. सा., 237)
" गोपिन मंडल नित्य बिराजत निसी दिन करत बिहार
सहस रूप, बहुरूप, पुनि एकरूप पुनि दोय ॥"
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देह के क्रियाशील हुए बिना अनुभूति जीव को कैसे होती है यह मधुर अनुभव स्वप्न में शरीर के बिना सहयोग के होता है । इस स्थिति में देह के सहयोग बिना ही देह का अनुभव होता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष दिखनेवाले द्वैत का अद्वैत में समन्वय होता है । यह शुद्धाद्वैत का परम लक्ष्य है । यही महारास है । सूरदास इस आध्यात्मिक अनुभूति का विलक्षण वर्णन करते हैं देखते देखते ही कृष्ण बन जाती है ।
जिसमें "राधा"
सुनहु श्याम इक बात नई ।
आज रास राघा अवलोक्यौ, मेरे मनमें भूल भई ।
तुम सम नैन, बैन तुम ही सम, आनन्द केलि उई ।
तुम्हरौ रूप, घर्यो तुम ही सौं, तुमही सौ भई, तुम ही भई ॥
माथे मुकुट, पोत पट, मुरली बनवाला, छवि छाति छई ।
रंचक भेद रह्यो या तन में, और सकल विधि पलाहि रई ||
यह कौतुक अनुपम मन मोहन, मनहुँ घोष रस बेलि बई ।
सूरदास स्वामी के परसन ललिता बलि बलि हार गई ।। (सू. सा., परि. 52 )
[Samipya : April, 191 March, 1992
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