Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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गोपी : गोपियाँ परब्रह्म श्रीकृष्ण की आनन्द प्रसारिणी शक्तियां है। गोपी शब्द का व्युत्पन्न अर्थ ही गो = प्रकाशः पीपान करने वाली, जो निरन्तर प्रकाश या आनन्द का पान करती है वही गोपी है । इसलिए गोपियाँ श्रीकृष्ण की रसात्मक सिद्धि शक्ति हैं और राधा श्रीकृष्ण की रसात्मक शक्ति या आनन्द शक्ति है । इन्हें आहलादिनी शक्ति भी कहते हैं । रस और आनन्द पर्यायवाची ही है । राधा और श्रीकृष्ण, मुक्त जीव एवं परब्रह्म का ऐक्य किस प्रकार होता है इसका मार्मिक निरूपण करते हैं :
सूरदास अत्यंत
"जब राधा तब हीं मुख, माधौ, माघो जब माधो वै जात सकल पवन, राधा
रटत है ।
विरह दहे ।। (सू. सा., 4723)
'कृष्ण - विरह-विह्वल राधा, माधौ माधौ रटते रटते माधौ बन जाती है, और राधा के विरह से संतप्त होकर अत्यंत व्याकुल हो जाती है और राधे राधे पुकारने लगती है । जीव श्रीकृष्ण के निरन्तर चिन्तन से कृष्णमय हो जाता है और श्रीकृष्ण में विलीन होकर जीवों के कल्याण के लिए व्याकुल हो उठता है । इस परम दार्शनिक माहाभाव को सूरदास ने अत्यंत रसात्मक रूप में उपरोक्त पद में प्रस्तुत किया है ।
सूरदास इसी भाव को पुष्ट करते है :
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जब परब्रह्म श्रीकृष्ण अवतार के रूप में अवितरित होते हैं तब वे अपनी रसशक्तियों के साथ उतरते है और अपने साथ लाते है अपना लीला घाम या दिव्यधाम । वे हैं राधा, गोपियाँ, गोप व ग्वालबाल, ब्रज इत्यादि । यही कारण है ब्रज की लीलाएं भूतकालीन नहीं है । अपितु वे हैं दिव्य और अलौकिक होने के कारण सदा होती रहती है, वे चिरन्तन हैं ।
श्री वल्लभाचार्य सुबोधिनी भाष्य में लिखते हैं स्त्रिय एवं हि तं पातु शक्तास्तु ततः पुमान्, अतो हि भगवान कृष्णः स्त्रीषु रेमे अहर्निशम् । (4)
"लक्ष्मी सहित होर नित क्रीडा सोभित सूरजदास ।
अब न सुहावत विषय-रस छीलय वा समुद्र की आस ॥ ( सूर. सा., 337)
सत् एवं चित्त से आविर्भूतजीव आनन्द अंश की निरंतर खोज में रहते हैं इ खोजनेवाले भक्त गण ही गोपियां हैं । गोपी बने बिना ब्रह्म या श्रीकृष्ण के आनन्द भी प्राप्त नहीं होते, कर सकते । भक्त की उत्कृष्टतम भूमिका की ओर निर्देश करते हुए नारद कहते हैं " यथा ब्रज गोपीकानाम् ” ( नारद भक्ति सूत्र 21 ) इसलिए गोपिकाएं व्यष्टि जीव हैं और श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम परब्रह्म है ।
वल्लभाचार्य ने तीन प्रकार की गोपियों का वर्गीकरण किया है :
महत्त्वपूर्ण अंश को अंश को भक्त कभी
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अन्यपूर्वा, अनन्यपूर्वा एवं सामान्या ।
अन्यपूर्वा गोपियां वे हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर दिया हो। इनका एकनिष्ठ प्रेम भगवान से ही है । संसार के सब व्यावहारिक कार्य करते हुए भी उनका ध्यान निरन्तर भगवान में ही रहता है । वे पुष्टि भक्त हैं और उच्चतम श्रेणी की हैं । प्रतीकात्मक रूप में कहा जाय जो ये विवाहित गोपियां हैं जिनका भगवान श्रीकृष्ण के साथ एकनिष्ठ प्रेम है ।
सूरदास एवं शुद्धाद्वैत ]
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