SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोपी : गोपियाँ परब्रह्म श्रीकृष्ण की आनन्द प्रसारिणी शक्तियां है। गोपी शब्द का व्युत्पन्न अर्थ ही गो = प्रकाशः पीपान करने वाली, जो निरन्तर प्रकाश या आनन्द का पान करती है वही गोपी है । इसलिए गोपियाँ श्रीकृष्ण की रसात्मक सिद्धि शक्ति हैं और राधा श्रीकृष्ण की रसात्मक शक्ति या आनन्द शक्ति है । इन्हें आहलादिनी शक्ति भी कहते हैं । रस और आनन्द पर्यायवाची ही है । राधा और श्रीकृष्ण, मुक्त जीव एवं परब्रह्म का ऐक्य किस प्रकार होता है इसका मार्मिक निरूपण करते हैं : सूरदास अत्यंत "जब राधा तब हीं मुख, माधौ, माघो जब माधो वै जात सकल पवन, राधा रटत है । विरह दहे ।। (सू. सा., 4723) 'कृष्ण - विरह-विह्वल राधा, माधौ माधौ रटते रटते माधौ बन जाती है, और राधा के विरह से संतप्त होकर अत्यंत व्याकुल हो जाती है और राधे राधे पुकारने लगती है । जीव श्रीकृष्ण के निरन्तर चिन्तन से कृष्णमय हो जाता है और श्रीकृष्ण में विलीन होकर जीवों के कल्याण के लिए व्याकुल हो उठता है । इस परम दार्शनिक माहाभाव को सूरदास ने अत्यंत रसात्मक रूप में उपरोक्त पद में प्रस्तुत किया है । सूरदास इसी भाव को पुष्ट करते है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जब परब्रह्म श्रीकृष्ण अवतार के रूप में अवितरित होते हैं तब वे अपनी रसशक्तियों के साथ उतरते है और अपने साथ लाते है अपना लीला घाम या दिव्यधाम । वे हैं राधा, गोपियाँ, गोप व ग्वालबाल, ब्रज इत्यादि । यही कारण है ब्रज की लीलाएं भूतकालीन नहीं है । अपितु वे हैं दिव्य और अलौकिक होने के कारण सदा होती रहती है, वे चिरन्तन हैं । श्री वल्लभाचार्य सुबोधिनी भाष्य में लिखते हैं स्त्रिय एवं हि तं पातु शक्तास्तु ततः पुमान्, अतो हि भगवान कृष्णः स्त्रीषु रेमे अहर्निशम् । (4) "लक्ष्मी सहित होर नित क्रीडा सोभित सूरजदास । अब न सुहावत विषय-रस छीलय वा समुद्र की आस ॥ ( सूर. सा., 337) सत् एवं चित्त से आविर्भूतजीव आनन्द अंश की निरंतर खोज में रहते हैं इ खोजनेवाले भक्त गण ही गोपियां हैं । गोपी बने बिना ब्रह्म या श्रीकृष्ण के आनन्द भी प्राप्त नहीं होते, कर सकते । भक्त की उत्कृष्टतम भूमिका की ओर निर्देश करते हुए नारद कहते हैं " यथा ब्रज गोपीकानाम् ” ( नारद भक्ति सूत्र 21 ) इसलिए गोपिकाएं व्यष्टि जीव हैं और श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम परब्रह्म है । वल्लभाचार्य ने तीन प्रकार की गोपियों का वर्गीकरण किया है : महत्त्वपूर्ण अंश को अंश को भक्त कभी For Private and Personal Use Only अन्यपूर्वा, अनन्यपूर्वा एवं सामान्या । अन्यपूर्वा गोपियां वे हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर दिया हो। इनका एकनिष्ठ प्रेम भगवान से ही है । संसार के सब व्यावहारिक कार्य करते हुए भी उनका ध्यान निरन्तर भगवान में ही रहता है । वे पुष्टि भक्त हैं और उच्चतम श्रेणी की हैं । प्रतीकात्मक रूप में कहा जाय जो ये विवाहित गोपियां हैं जिनका भगवान श्रीकृष्ण के साथ एकनिष्ठ प्रेम है । सूरदास एवं शुद्धाद्वैत ] [ 121
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy