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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोकुल अनन्त धाम है वहां श्रीकृष्ण अपनी षड् गुण सम्पन्न दिव्य आध्यात्मिक देह द्वारा रमण करते हैं । यह आनन्द विग्रह है । यह अक्षर ब्रह्म और अक्षरधाम दोनों ही है । इसलिए गोकुल, वृन्दावन, गोलोक भौगोलिक प्रदेश नहीं है अपितु भगवान के अनन्तधाम है । यह अनन्त और सर्वत्र है । ( वही 4-12-15 ) अतः भगवान की लीला की अनुभूति ही मोक्ष है और उसमें प्रवेश ही परमा मुक्ति है । "लीलेव केवल्यं जीवानां मुक्ति रूपम् तत्र प्रवेशः परमा मुक्तिरिदित्य यावदिहार्थः । (वही, 4-4-14) यह परमा मुक्ति ब्रह्मैक्य मुक्ति से उत्तम है क्यों कि जीव भजन अर्थात् भगवद् लीला है के आनन्द का अर्थात् भजनान्द का दिव्य देह प्राप्त करने के बाद अनुभव करता है । यह पुष्ठि मार्ग की पूर्ण मुक्ति है । "मुक्तोऽपि जीवः पुष्टिमार्गेऽगीकृतो भगवद्विग्रह प्राप्त भजवानन्द प्राप्नोति इति सिद्धम्... 120] इस प्रकार जीव और ब्रह्म के मिलन व एक्य का समाधान हो जाता है। शरीरी के रूप में जीव ब्रह्म की लीला का आनन्द लेता है । और अशरीरी रूप में ब्रह्म एकक्य होने से जीव का ब्रह्म में विलय हो जाता है और ब्रह्म के साथ जीव भी उसकी लीला के आनन्द का अनुभव करता है । इस प्रकार द्वैत और अद्वैत परक दोनों श्रुतियों का वल्लभाचार्य अणु भाष्य में समन्वय करते हैं। सूरदास कहते हैं : “चितवनि रोके हूँ न रही स्याम सुन्दर सिन्धु-सनमुख सरित उमंग बही मिल्ली सूर स्वभाव स्यामहि फेरि हूँ न चही" (सू. सा., 237) " गोपिन मंडल नित्य बिराजत निसी दिन करत बिहार सहस रूप, बहुरूप, पुनि एकरूप पुनि दोय ॥" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देह के क्रियाशील हुए बिना अनुभूति जीव को कैसे होती है यह मधुर अनुभव स्वप्न में शरीर के बिना सहयोग के होता है । इस स्थिति में देह के सहयोग बिना ही देह का अनुभव होता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष दिखनेवाले द्वैत का अद्वैत में समन्वय होता है । यह शुद्धाद्वैत का परम लक्ष्य है । यही महारास है । सूरदास इस आध्यात्मिक अनुभूति का विलक्षण वर्णन करते हैं देखते देखते ही कृष्ण बन जाती है । जिसमें "राधा" सुनहु श्याम इक बात नई । आज रास राघा अवलोक्यौ, मेरे मनमें भूल भई । तुम सम नैन, बैन तुम ही सम, आनन्द केलि उई । तुम्हरौ रूप, घर्यो तुम ही सौं, तुमही सौ भई, तुम ही भई ॥ माथे मुकुट, पोत पट, मुरली बनवाला, छवि छाति छई । रंचक भेद रह्यो या तन में, और सकल विधि पलाहि रई || यह कौतुक अनुपम मन मोहन, मनहुँ घोष रस बेलि बई । सूरदास स्वामी के परसन ललिता बलि बलि हार गई ।। (सू. सा., परि. 52 ) [Samipya : April, 191 March, 1992 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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