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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीव संसार से तभी मुक्त हो सकता है जब विद्या माया उसके अज्ञान को मिटा देती है। यह तभी संभव होता है जब भगवद् अनुग्रह होता है । मोक्ष एवं परलोक संसार के दुःखों से निवृति एवं नित्य आनन्द की प्राप्ति को ही मोक्ष कहते हैं । यह भक्ति एवं भगवद् कृपा - अनुग्रह से ही प्राप्त होती है । वल्लभाचार्य कहते हैं जब विद्या द्वारा अविद्या का निश्शेष होता है तभी जीव मुक्त होता है। I यह स्थिति जीव को तभी प्राप्त होती है जब भी प्रारम्भ कर्म भक्ति एवं भगवद् अनुग्रह से विनष्ट हो जाते है। वह माचार्य परंपरानुरूप चार प्रकार की मुक्तियों का उल्लेख करते हैं : 1. सालोक्य मुक्ति : श्रीकृष्ण के दिव्यधाम या लीलाधाम में प्रवेश करना है । 2. सामीप्य मुक्ति श्रीकृष्ण के समीप बैठना उनके चरणों की शरण में निवास करना है । 3. साप्य मुक्ति श्रीकृष्ण के साथ मैत्री या सखा भाव है, जैसे वृंदावन में ग्वालबाल एवं : गोप सखा । 4. सायुज्य मुक्ति : श्रीकृष्ण के अखंड आनन्द में प्रवेश है । यह रासलीला में प्राप्त होता हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन चार मुक्त अवस्थाओं के अतिरिक्त श्री वल्लभाचार्य ने पांचवी भक्ति का समावेश किया है । यह है "सायुज्य अनुरूप मुक्ति, अवस्थानुरूप" । इसमें जीव भगवद्लीला में प्रवेश कर भगवान की लीला के आनन्द का सहभागी हो जाता है। मुक्तियों में यह सर्वोच्च मुक्ति है। जीव अपनी जीव-मुक्त अवस्था में भो भगवान के भजन के आनन्द में लीन रहना चाहता है । भगवान भगवद् अनुग्रह से भगवान की छोला के आनन्द का सदा अनुभव करता है । वल्लभाचार्य इस स्वरूपानन्द कहते हैं । स्थूल एवं सुक्ष्म शरीर छोड़ने के पश्चात् जीव दिव्य देह प्राप्त करता है और ब्रह्म की लीला के आनन्द का सहभागी बनता है । ज्ञानी एवं अंश जीवों का अक्षर ब्रह्म में समाहित हो जाते है । यही अद्वैत है । भक्त : शुद्धाद्वैत के पुष्ट भक्त ब्रह्म के साम समानतया तारतम्य का भाव रखते है लेकिन एक्य की कामना नहीं करते हैं । वे आनन्द का निरन्तर अनुभव करना चाहते हैं लेकिन आनन्दरूप बनना नहीं चाहते । इसलिए ब्रह्म भाव को प्राप्त करने के पश्चात् वे स्वयं रस रुप हो जाते हैं और तीन प्रकार से अनुभूति करते है । 1. रस रूप पुरुषोत्तम की लीला में प्रवेश करते हैं । 2. रस रूप पुरुषोतम की अवयव या अलंकार बन जाते हैं । 3. भगवद् आनन्द को दिव्य देह द्वारा अनुभव करते हैं । वैकुंठ का आनन्द स्थूल है । इसलिए वल्लभाचार्य गोकुल को बैकुंठ से श्रेष्ठ व उत्तम मानते हैं । सूरदास कहते हैं: " इहि ब्रज यह रस नित्य हैं, मैं अब समुज्यो आइ । वृन्दावन रज हवे रहो, ब्रह्म मोक न सुहाई ।। (सू.सा., पृ. 430) "वृन्दावन ब्रज को महत कापै बरन्यो जाइ । चतुरानन का परिसि कैलोक गयो सुख पाइ ॥ सूरदास एवं शुद्धाद्वैत ] (वही, पृ. 431) For Private and Personal Use Only [ 119
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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