Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अनन्यपूर्वा गोपिकाएं वे हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर दिया हो। उसका लौकिक जीवन से कोई संबन्ध नहीं है । वे तो संम्पासी है जो शास्त्रोक्त यम नियम का पालन करते हुए जीवन यापन करती हैं। रूपात्म रूप में कहा जाय तो वे निश्व कुमारिकाएं है जो लोकिक विवाह इत्यादि नहीं करती है । वे पुष्टि मर्यादा भक्त हैं । प्रेम संन्यासिनी हैं । वे उच्चतर कोटि की भक्त हैं ।
सामान्या गोपिकाए वे हैं जो भगवान श्रीकृष्ण को अपना बालक या पुत्र मानती हैं। उनका श्रीकृष्ण के साथ माता एवं पुत्र का संबध है। इसमें वात्सल्य भाव ही प्रधान है। ये उच्च श्रेणी की भक्त है । ये पुष्ठि प्रवादी है । बालकृष्ण की उपासना भक्ति का प्रथम सोपान है। यह मानव की सहज प्रवृत्ति के अनुकूल है कि जो उसे भगवदोन्मुख कर सकती है। बालक के प्रति मनुष्य का स्वाभाविक प्रेम होता है । इसी भाव से यशोदा व नन्द बाबाने श्रीकृष्ण की उपासना की यही भाव सूरदास के काव्य का केन्द्रबिन्दु रहा है । इस भाव का मौलिक, आध्यात्मिक एवं सहज रसात्मक निरूपण सूरदास ने किया है । इसे साहित्य में वात्सल्य रस कहा गया है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
"मैया मैं नहि माखन खायो ।
ख्याल परे ये सला सबै मिलि मेरे मुख लपटायें" (वही, 952) "मैया मैं तो चंद खिलोना के हो ।
122 1
के हो लोटि घरनि पर अब हों, तेरी गोद न एहो ।" (वही, 811 )
"त मुख देख यशोदा फूली ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हरषित देख दूध की दंतियां, प्रेम
मगन तन की सुधि भूली
सूरश्याम किलकत द्विन देख्यो, मनो कम पर विष्णु जमाई।" (वदी, 700)
श्रीकृष्ण माधुरी का अवलोकन करते हुए, प्रेम मगन होकर उन की सुध बुध यदि कोई भूल जाय तो क्या आश्चर्य है। यही से तो भक्ति अंकुरित होती है ।
वल्लभाचार्य एक और श्रेणी के भक्तों का उल्लेख करते हैं । वे अत्यंत विनम्र एवं अहंकार रहित हैं। उसकी इस समग्र विनम्रता को देन्य भाव कहते हैं। वे संपूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के शरणागत हो जाते हैं। इसे प्रपत्ति भी कहते हैं। यहां भक्त अपने सर्व अहंकार को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर देता है। प्रतीकात्मक रूप से मनायें इसे स्त्री-मात्र कहते हैं। दैन्य-भाव या स्त्री भाव में भक्त, अहंता और ममता दोनों से मुक्त हो जाता है। उसका सारा जीवन अत्यंत पावन या उदास हो जाता है। उन्हें आनन्द या मुक्ति प्रदान करने के लिये भगवान श्रीकृष्ण स्वयं आकर्षित होते हैं। उनके साथ तो परमात्मा अहर्निश रास करते हैं-निरंतर आनन्द प्रदान करते हैं ।
"जो श्रुति रूप होय ब्रज मंडल कीन्हौं रास बिहार । नवल कुंज में, अंस बाहुघर कीन्हीं केलि अपार ॥
वृन्दावन, गोवर्धन, कुंजन, यमुना पलिन सुदेस |
नित प्रति करत बिहार मधुर रस, स्वामा स्याम सुदेश || (सू.नि., पृ. 371 ) वल्लभाचार्य स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की स्त्री-भाव से ही उपासना या सेवा करते थे ।
"स्त्रिय एवं हितं पातुं शक्तासु ततः पुमान् ।
"हम को विधि व्रज बधू न कीन्ही, कहा अमर पुर वास भएँ ।
बार बार पछितात महं कहि, सरल होते हरि संग रहें ||
[ Samipya April, 191 March, 1992
For Private and Personal Use Only