Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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वास्तविक है । वह न तो विवर्त या भ्रम है और न माया निर्मित अध्याय या आरोपण । वल्लभाचार्यं अव्यक्त ब्रह्म को व्यक्त करनेवाली शक्ति को माया मानते हैं । ब्रह्म सत्य है इसलिए माया भी सत्य है । जगत की प्रकृति : सृष्टि प्रसारण हेतु पर ब्रह्म स्वेच्छया अक्षर ब्रह्म बन जाता है जो पुरुष, काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकृत करता है । अपने ही चिद् अंश से वह पुरुष और प्रकृति बनता है और 26 तत्त्वों में अभिव्यक्त होता है । इस तरह समस्त सृष्टि का आधार कुल 28 तत्व हैं
5 कर्मेन्द्रियां
5 ज्ञानेन्द्रियों
5 तम्मात्राएँ शब्द, स्पर्श, रूपरसगन्
1181
5 महाभूत-अकाशवायु अग्निमल पृथ्वी
1 मन
1 अहंकार
3 गुण-सत्व- रजस-तमस
1 पुरुष
1 प्रकृति
1 महत्- (बुद्धि - चित्त)
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सामूहिक रूप से समस्त जगज विराट पुरुष ही है । इसका अन्तर्यामी परब्रह्म ही है। सूरदास कहते हैं ;
"त्रिगुन प्रकृति तें महास्त्र अहंकार
मन- इन्द्रिय- शब्दादि तातै कियो निस्तार
सब्दापि ते पंचभूत सुन्दर प्रगटाए । पुनि सव रचि अंड आयु में आप समाए
तीन लोक निज देह में राखे कर विस्तार
आदि पुरुष सोई भयो जो प्रभु अगम अपार" (सू. सा०, पृ. 126 )
जगत, संसार और माया प्रायः जगत् एवं संसार पर्यायवाची से माने जाते हैं और उसी रूप में उनका प्रयोग होता है । वल्लभाचार्य ने इन दोनों शब्दों में सूक्ष्म मेद बताया है । जगत् अक्षर ब्रह्म या ईश्वर की अभिव्यक्त करनेवाली माया शक्ति द्वारा आविर्भूत हुआ है इसलिए सत्य है जब कि संसार जीव के अहंकार एवं अविद्या माया निर्मित है, भतः मिथ्या है।
"प्रपंचो भगवदत्कार्यस्तद्रूपों माययाऽभक्त ।
तरछक्त्या विद्यया वस्मै जीव संसार उच्यते ॥ (वही, 23 )
विद्याऽविये हरेः शक्ती माययैव विनिर्मिते । (वही, 31 )
यह अविद्या माया या अज्ञान जीव को संसार के बन्धनों में जकड़ देती है। सूरदास इस बंधन से मुक्त होने के लिए बार बार अपने आराध्य से प्रार्थना करते हैं।
अब मैं माया हाथ विकानी ।
पर बस भयो पसु यो र बस, भज्यो न अपति रानौ (सू.सा.पु. 17 )
[Samipya: April, '91-March, 1992
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